दातुन

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मुँह में दातुन, कंधे पर गमछा और हाथ में बेत लिए एक उम्र दराज शख्स पोखरे की ओर से चला आ रहा है, रास्ते में रुक रुक कर वो कभी बुआई करते लोगों को बेत के इशारे से कुछ समझाता है, तो कभी घास करती औरतों से गलचौर करता है | इन महाशय को पूरा गाँव "दातुन" के नाम से जानता है | कभी इन्हें "मुनासीब राम" के नाम से भी जाना जाता था , पर अब कुछ ही पुरनिया लोग बचे होंगे जो इनका असली नाम जानते है |

मुनासीब राम की बाजार में कभी एक दुकान हुआ करती थी,  चाय पकौड़ों और मकुनी की,  हाथ में स्वाद था मुनासीब के, पर था बड़ा आलसी,  वो तो भला हो उसकी बीवी का कम से कम बीवी के डर के मारे दुकान पर बैठा तो रहता था,  वरना तो बड़े लड़के के अफसर बनते ही दुकान कब की बंद कर देता | आज से करीब पंद्रह बरस पहले मुनासीब की मेहरारू गुजर गई और साथ साथ दुकान लगाने की पाबंदी भी खत्म हो गई,  तब तक तो छोटा लड़का भी बम्बई में पैर जमा चुका था | भगवान की मुनासीब पर हमेशा से ही दया दृष्टि बनी रही आज भी महीना शुरू होते ही दो दो मनी आडर आ पहुँचते हैं उसके के दरवाजे पर |

ऐसे हालतों में मुनासीब दुकान क्या ही चलाता उसने दुकान बेच दी और मुँह में दातुन दबाए पूरे गाँव का दौरा कर कर के सेती की सलाह बांटने लगा | मुनासीब उर्फ दातुन आज भी रोज की तरह दौरे पर निकल पड़ा है,  "दातुन" की नजरों से देखें तो पता चलता है कि वो भलमनसी में बड़ा यकीन रखता है और इसलिए वो अपना ज्ञान बांटने से कतई परहेज नहीं करता,  भले ही सामने वाला हाथ जोड़ निवेदन करता रहे कि उसे ज्ञान नहीं चाहिए पर एक बार "दातुन" ने ठान ली तो ठान ली बिना सेती का ज्ञान दिए वो ठस से मस नहीं होने वाले |

मुनासीब उर्फ दातुन का दौरा तब तक चलता है जब तक वो दातुन को चबा चबा के कुची माने कि झाडूं न बना दे,  गाँववालों को इस बात की खुशी है कि दोपहर होते होते "दातुन" उनके प्राण छोड़ देता है |

पिछले कुछ दिनों से गाँव में एक अफवाह जंगल की आग की तरह फैली रही है, कि दातों की ज्यादा अच्छी देखरेख हेतु मुनासीब शाम के वक्त भी दातुन करने की सोचने लगा है, और जिस जिस तक यह अपवाह पहुँचीं उसका तो दिल ही बैठ गया | कुछ लोगों ने इस अफवाह को अफवाह समझना ही उचित समझा और अपने दिल को खड़ा ही रक्खा, पर उन्हें क्या पता था कि कभी कभी अफवाहें भी सच्चाई की शक्ल ले लेती हैं | आज गाँववालों के लिए यह वही मनहूस दिन है, जब मुनासीब मुँह में दातुन लिए शाम को भी निकल पड़ा है |

: शशिप्रकाश सैनी

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