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Showing posts from April, 2014

खुली आंख से सपने देखें

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खुली आंख से सपने देखें सपने सारे टूट गए  हाथ बढ़ाया कुछ तो रख लूँ दो एक सपना पाल सकूँ सपने थे तो चुभते जग को टूट गए अब चुभते मुझको  दिल टूटा और टूट रहा है  लहू हृदय से फूट रहा है सपनों के पीछे मैं भागा अपने सारे छूट गए  अपराध हुआ बस इतना सा खुली आंख से सपना देखा : शशिप्रकाश सैनी //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Free ebook में उपलब्ध  Click Here //

चाय बिगड़ी बात बनाएँ

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आज हम बात करेंगे चाय की, जो की दूध, पानी, चीनी और एक विशेष पौधे की पत्तियों से तैयार कि जाती है, अंग्रेज जब भारत छोड़ के गए तो वो अंग्रेजी के साथ साथ चाय छोड़ गए, भारतीय व्यवस्था को चलाने में चाय और अंग्रेजी दोनों ही ईंधन लगते है | जी हाँ चाय के पास हर समस्या का उपाय है, चाय के साथ कुछ और वस्तुएं जुड जाएँ, तो वो एक दम अचूक इलाज साबित होती है चाय, नहीं मानते गौर कीजियेगा चाय और सुट्टा, ये जुगलबंदी चिंता मिटाएँ, नए उपाय सुझाएँ, एक हाथ में सुट्टा और दूजे में चाय नया हौसला ले आए अब कहानी चाय-पानी की, चाय-पानी की असल महिमा वही बता सकता है जिसका नित्य सरकारी दफतरों में आवागमन हो, फ़ाइल को हिलाने की सारी परेशानी दूर करे चाय-पानी यहाँ तक कि लड़की के हाथ कि चाय शादी तय कराएं अब हम आते है असली मुद्दे पे, चाय कैसे कुर्सी दिलाएं या चाय कैसे कुर्सी बचाएं मोदी ने चाय कि महत्ता सबसे पहले समझी और दिल्ली सल्तनत के खिलाफ चाय को बखूबी इस्तेमाल भी कर रहें है, “चाय पे चर्चा” को ही ले लीजिए जनता की हाय और मोदी की चाय जब मिल जाए, तो कांग्रेस की कुर्सी जाएँ हाल में पप्पू

हमें पे छलकीं मुस्कान नहीं

न रूठ रही न मान रही  हमें पे छलकीं मुस्कान नहीं  धड़कन मेरे खाते नहीं  प्यार भरी कोई बातें नहीं  अब तक राह आसान रही  फिर भी रहा अकेला मैं  आगे डगर बड़ी है मुश्किल चाँद चांदनी कोई नहीं  न तारे हैं झिलमिल झिलमिल फिर कोई क्यों अब साथ चले  मेरी झोली खाली है  न सिक्कों की बरसात चले  मेरी धड़कन समझें धड़कन  दिल को मेरे कोई दिल समझें  यह वहम कब तक पाले रखे कठिन कठिन औ मुश्किल मुश्किल  जीवन की हर सांस हुई दुख की चाह करे क्या कोई ? औ सुख देने मैं लायक नहीं  फिर साथ कहा कोई बात कहा धड़कन मेरी समझें कोई  अब ऐसे हालात कहा  कोई स्वप्न आकार न लेता  स्वप्न छलावे सब बहालवे उसको जो जो होना था खाली हर वो कोना है  जो हूँ मैं हूँ कविता मेरी  और नहीं कोई साथ चले चलता हूँ चलना तो चलना रूक कर भी किसे मैं जोहूं : शशिप्रकाश सैनी //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Free ebook में उपलब्ध  Click Here //

काश कि

अपने ही घर में  दर्द बो गया हूँ  माँ बाप की आँखों में आँसू हो गया हूँ काश  मैं लिखता नहीं ये रोग हमे लगता नहीं काश कि मेरी स्कूल की किताबों से कोई कविताओं के पन्ने फाड़ देता काश कि  सिलेबस में बस गणित विज्ञान  और कॉमरस होता काश कि मैने सूरज का उगाना, चिड़ियों का चहकना न पढ़ा होता काश कि शब्द को मैं शब्द ही रखता भाव मिलाता नहीं काश कि घर में मेरे, पापा डायरियां न लाते काश कि पांचवी में मैंने पहली कविता न लिखी होती लिखी तो लिखी काश कि मेरी हिम्मत यूँ न बढ़ी होती काश  किताबें पीछे से भरी होती  मेरी भावनाएँ न छलकती काश मुझे भाव छुपाना आता काश मैं लिखना छोड़ पाता काश  बनारस ने मुझे बुलाया न होता  और जीना सिखाया न होता तब शायद  मैं दूसरों की जिंदगी जी लेता तब मैं दफ्तर जाता बस रुपया कमाता माँ बाप की आँखों में आँसू तो न बोता शायद मैं भी इंजीनियर, मैनेजर एक अच्छा बेटा होता  अगर पहली बार लिखा न होता : शशिप्रकाश सैनी //मेरा पहला काव्य

चल बातें होई रे

नगर नगरिया,  डगर डगरिया क्यों कर सोई रे चल बातें होई रे रात सुहानी  न्न ना रात सुहानी कैसे? रात तो काली  खाली खाली  अंधियारा सब ओर हुआ  नगर नगरिया,  डगर डगरिया क्यों कर सोई रे चल बातें होई रे रात तो काली खाली खाली  स्लेट बनाओ  अपनी गाओ सदियों का है आनाजाना  अपना गढ लो राज सुहाना  नगर नगरिया,  डगर डगरिया क्यों कर सोई रे चल बातें होई रे अपने जी की  बात बतानी  कहीं कुंवर कहीं है रानी जो दिन में न जी पाए वो रात कहानी जीनी है  हर बात हमारी जीनी है  दिल के अरमां शब्द बनेंगे  भाव भावना खेलेंगे  आंसू का दरिया बहुत हुआ  हंसी मिली बरसात की बारी  नगर नगरिया,  डगर डगरिया क्यों कर सोई रे चल बातें होई रे हंस दे प्यारी रोना कैसा  कुंवर मिलेगा सोने जैसा  बोल उसे कैसे कर लाऊँ  टक टक घोड़े पर  या लाऊँ मैं मोटर कार  हर हुक्म तुम्हारा सर आँखों पे मैं चुटकी में कर दू साकार  नगर नगरिया,  डगर डगरिया क्यों कर सोई रे चल बातें होई रे सपनों को उड़ने की इच्छा  सपनों को सा

आशाएं और भय

अपनों से बगावत की यह वजह है आँखों में आशाएं हैं और भय है हर पल एक हौसला बढता है दूजा बिखरता है शशि हर कदम पर खुद से लड़ता है आँखों में आशाएं हैं और भय है भाव कागज पे उतारू तो हाथ कांप जाता है क्या भविष्य के गर्भ में बस कलह है आँखों में आशाएं हैं और भय है रात ख़ामोशी मुझे अच्छी लगती है हर चढ़ता सूरज मुझे डरता है आँखों में आशाएं हैं और भय है भय ज्यादा है आशाएं मद्धम हाथो से भागता समय है आँखों में आशाएं हैं और भय है : शशिप्रकाश सैनी //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Free ebook में उपलब्ध  Click Here //