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Showing posts from February, 2014

इशारे लोकल के (मुंबई लोकल का अनुभव)

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जीतनी उम्मीद भरी निगाहों से आज हम उन्हें देख रहे थे, जीवन में पहले कभी किसी को न देखा था। उनका हर इशारा बड़ी सावधानी से नाप तोल रहे थे, कहीं तोलने तालने में बरती लापरवाही हमें भारी न पड़ जाए। नहीं नहीं आपकी शंका निराधार हैं, वयर्थ ही चिंता कर रहे हैं, हम किसी सुंदरी के मोह पाश में नहीं फसे। यहाँ चर्चा का विषय एक सज्जन हैं, और घटना मुंबई लोकल की। ये महानुभाव काफी देर से इशारे किए जा रहे थे, कभी बैग संभालते कभी झुकते कभी तनते। वास्तव में ये इशारे न थे, बस हरकतें भर थी जो अनायास ही हो जाती हैं। लेकिन लोकल के किसी खड़े मुसाफिर से पूछें, तो ये इशारे हैं इस में कोई दो राय नहीं। इशारा ये हैं की सीट खाली होने को हैं, पैरों को थोड़ा आराम नसीब होगा। बस यही एक आस जगाए रखती हैं लोगों को, वरना खड़ी नींद कोई मुश्किल काम नहीं। बात भी सही हैं जब तक खुद का कुछ दांव पे न लगा हो तब तक आप जागते नहीं। यहाँ दांव पे मेरी सीट थी, जी हाँ मेरी सीट पहले मैं चढ़ा था मेरा नंबर पहले। यही सीट हमें खड़ी निद्रा मे जाने से रोकती थी। कब कोई सीट खाली हो, और मैं झपटूँ ये सम्पत्ति हथियाने के लिए।

नाटक "अंतिम उजाला" का एक अंश

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Photo Courtesy : Gmb Akash मेरे नाटक "अंतिम उजाला" का एक अंश पहला दृश्य ( शमशान घाट , बनारस , देर रात का दृश्य , कुछ चिताएं अब भी जल रही थी और एक मुर्दा अपनी पारी के इन्तेजार में था) ( तभी एक पर्यटक शमशान की तरफ आता दीखता है) कल्लू डोम : कौन हो बाबू यहाँ क्या कर रहें हो ,   जाओ घर जाओ सो जाओ ठंड बहुत है और ये घूमने की जगह भी तो नहीं | पर्यटक : परदेशी हूँ , बनारस घूम रहता था, मेरी उत्सुकता यहाँ खींच लाई सोच आज शमशान भी देख ले , तुम कौन हो | कल्लू डोम : इस पार से उस पार का सूत्रधार हूँ , मेरी इजाजत के बिना कोई नहीं जलता यहाँ राजा हो या रंक , यहाँ मेरी सत्ता चलती है , शमशान मेरा राज पाट तुम मुझे राजा भी कह सकते हो , वैसे कल्लू डोम बुलाते है मुझे | ( डोम और पर्यटक बात करने लगते हैं) कल्लू डोम : देख बाबू कतार यहाँ भी लंबी है , भीड़ बस इस पार ही नहीं उस पार भी है , रोज जलाता हूँ, साँस लेने तक की फुरसत नहीं मुझे , दिवाली पे जलाता हूँ होली पे जलाता हूँ , बस जलाएं जाता हूँ पर ये भीड़ है कि खत्म ही नहीं होती | पर्यटक : दिन में कितनी लाशें ज

पर

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मैं एक पर हूँ परिंदे का टूटा हुआ पर हवा के भरोसे उड़ता हुआ पर. एक झोखा मुझे ऊपर ले जाता दूजा नीचे ले आता, मेरी नजर थी चाँद पर और मुझे मिला क्या न जमीं न आसमां मुझे मिला अधर. उड़ाते उड़ाते हवा मुझे लाई एक खिड़की पर, एक शख्स हाथों में बैल्ट लिए बीवी पे अपनी ढाता था कहर, जी करता था चिल्लाऊँ उठो आवाज उठाओ रोकों अपनी खामोशी उसकी ताकत न बनों सबला बनों अबला क्यों रहो, पर मैं मजबूर इस कदर था मैं तो पर था. फिर हवा मुझे  वहाँ से उड़ा लाई एक आलीशान बंगले की छत पर, यहाँ दावत थी शराब थी रंगीनीयाँ थी जब रोटीयों को मैंने कूड़ेदान में जाते हुए देखा, याद आया मुझे रास्ते का मंजर सड़क किनारे भूख से तड़पते बच्चे देखें थे मैंने, कितना बेरहम है ये शहर मैंने चाहा कुछ रोटियाँ उठा लाऊँ, पर मैं मजबूर इस कदर था मैं तो पर था. फिर हवा मुझ से खेलने लगी इसबार थी जगह एक दुकान का शटर, कोई निडो आया था पता पूछता था भीड़ से अलग दिखना पाप हो गया पूर्वोत्तर से आना क्या अभिशाप हो गया, उस पर टूटा दरिंदो का कहर माना जान ले

कहानी आईने की

नाम ! किसी ने रखा नहीं कभी, मुझे पुकारने की कोई जहमत भी नहीं करता, बस मेरे सामने आ अजीब अजीब हरकतें करने लगते, कोई केषूओ से खेलने लगता, तो कोई मुहँ चिढाने लगता हैं। अभी कल की ही बात हैं, एक सज्जन आए और अपने घर का दुखड़ा रोने लगे, हम तो उनको जानते तक नहीं, दूर की दुआ सलाम तक नहीं, अरे अपने परिचतो में रोते तो कुछ सलाह कुछ दिलासा मिलता । रोज का हो गया हैं ये सब, कोई न कोई तमाशा हमें झेलना ही पड़ता हैं, कुछ देर पहले एक प्रेमी जोड़ा आ धमका था, और आप तो जानते ही हैं इन नए परिंदों को, बादल छटे नहीं की पंखो की फड़फड़ाहट शुरु, हम तो समझाते समझाते थक गए, "मियाँ दीवारों के तो बस कान होते हैं, हमारी तो आंखें भी हैं, जरा तो लिहाज़ कर करो" पर कोई सुने तब ना । अरे अरे इसे न मिटाइए, दागा नहीं हैं ये, खुदा, ईश्वर आप जिसे भी पूजते हो, आपको उसकी कसम । हमारी बेरंग जिंदगी में एक यही लम्हा हैं जो हमें रंगों से जोड़ता हैं, हर रविवार शाम आती हैं, हमारे सामने ही सजती सवरती और जाते जाते एक चुंबन दे जाती हैं, आप लोग उसे किस्स कहते हैं शायद, थोड़ी दूर जाके पलटती हैं और

जुल्फों में दो जगह

ना, खंजर की तरह  सीने में गडा हाँ का मरहम दे दे जीने की वजह  तो मैं चला आऊँ  मेरे भेजे गुलाबो को  जुल्फों में दो जगह  तो मैं चला आऊँ  रातों से किनारा करू  तुम बनो सुबह  तो मैं चला आऊँ  : शशिप्रकाश सैनी //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Free ebook में उपलब्ध  Click Here //

पैबंद

भूरी कमीज पे नीला पैबंद कोई रईसी तो नहीं हैं फिर भी देखो मुस्कुराता हैं शान से चलता हैं, अपनी अकड़ पे आखिर नीला उसका पसंदीदा रंग जो ठहरा हां मानता हूँ, अमीर होना थोड़ा मुश्किल हैं, जिस राह पे मैं हूँ कल को, हो सकता हैं, नयी कमीज भी न ला पाउँगा पर पैबंद, पैबंद तो अपनी पसंद का लगा सकता हूँ, पुरानी कमीज पे मेरा पैबंद मेरी कविताएँ हैं : शशिप्रकाश सैनी //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Free ebook में उपलब्ध  Click Here //