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Showing posts from 2014

किसी साज का न साथ झंकार हम नहीं

चुभती रही कानों में  वो आवाज हम रहे  किसी साज का न साथ झंकार हम नहीं --------------------------------------------- कौन जिंदा है  कौन मर गया होगा  इस भागती भीड़ को  क्या पता होगा ? यह महानगर है यहाँ कोई किसी का नहीं ---------------------------------------- नई सुबह के इंतजार में  अंधियारे से कब तक लड़ना  चढ़ती सांसें, घटती हिम्मत  मरना जीना, जीना मरना कितने ख्वाब हकीकत होते? कितनों को पैबंद मिली ? नई सुबह के इंतजार में कितनों ने है दम तोड़ा कितनों को है कैद मिली  फिर भी धड़के थोड़ा-थोड़ा : शशिप्रकाश सैनी 

हाँ! मेरी फटती है

कभी हल्के हल्के, कभी जोरो से  कभी एकांत में, कभी भीड़ में  कभी चारों ओरों से फटती है  हाँ ! मेरी फटती है पहली बार कब फटी थी  शायद जब राकेश की नाक तोड़ी थी  फिर फटने का सिलसिला चलता रहा कभी खुद के कामों से  कभी दुनिया के ईनामों से चूतडों में सरसराहट हुई  और मेरी फट गई  हाँ ! मेरी फटती है दूसरी बार  जब गुरप्रीत को धमकाया था वो अपनी मम्मी ले घर आया था  तब आकाशवाणी हुई थी  “बेटा ! आज तेरी चौतरफा फटेगी” और फटी, फटना ही था दो दिन तक लगातार फटती रही  हाँ ! मेरी फटती है कितनी बार? कैसे? कहाँ-कहाँ? फटी ! कितना बतलाऊं  मेकैनिकस के पेपर में  बी एच यूँ की काउंसलिंग में नौकरी के पहले दिन लगातार निरंतर फटी है  हाँ ! मेरी फटती है दिल्ली के किस कोने में  किस वक्त मेरी नहीं फटी आज फिर एक बार  चूतड़ों ने सरसराहट महसूस की है हाँ ! मेरी फट रही है आज फर्श पे फट रही है  तों क्या कल अर्श पे नहीं फटेगी ? फटेगी जरुर फटेगी चार गुना ज्यादा फटेगी तब फटने के कारण दूसरे होंगे  पर फटेगी जरुर  हाँ ! मेरी फटती रहेगी

घर आई कब पतोहिया

माई गरियावेलिन  "दुनिया खिलावत ह  पोता आउर पोतिया  कोखी में कुपूत भया न माने एको बतिया ए राम जी बतावा  घर आई कब पतोहिया" बाऊ गरियावेलन "पढइली लिखइली  बहइली ढेर नोटिया लईका बिगड़ गल  न माने एको बतिया ए राम जी बतावा  घर आई कब पतोहिया" तोही कटबू तरकारी  पतोहिया आके तारी  ताना ढेर मारी  "नसिबिया हमार  फुट गईल भईया  ए राम जी बतावा  काहे देला कवि सईया" : शशिप्रकाश सैनी 

अंतिम उजाला (नाटक)

कल्लू डोम- अरे मोहिनी बता बाबू को यहाँ क्या कर रही है तू , इनमें से कोई तेरा ग्राहक भी तो नहीं बन सकता फिर क्यों अपनी रात खराब करती है यहाँ बता ! वैश्या (मोहिनी)- मुझे अच्छा लगता है यहाँ इसलिए आती हूँ !   जिन्दों से घिन आती है   मुर्दे मुझे अच्छे लगतें हैं इसलिए आती हूँ !   वो जो उस तरफ हैं सब जानवर हैं हर रात नोची जाती हूँ मैं ,   हाँ ! जानवर जरुर बदल जाता है और जो नहीं बदलती वो मेरी किस्मत वही रोज का नोचना खसोटना जारी रहता है । ( वैश्या मुर्दे की तरफ मुह कर के जोर से बोलती है । ) वैश्या (मोहिनी)- ले छू मुझे नोच ! मैं पैसे भी नहीं लूँगी तुझसे, अब तो छू   देख बाबू ये मेरी तरफ देखता भी नहीं , अब तू ही बोल कौन सी दुनिया अच्छी, ये दुनिया या वो दुनिया   फिर क्यूँ न आऊ इस शमशान पर । ------------------------------------------------------------ पूरा नाटक यहाँ निशुल्क ई-बुक में उपलब्ध है  https://www.scribd.com/doc/245544043/Antim-Ujala

धुआँ होना ही पड़ा

मेरा धुआँ तेरे धुएं से  अलग क्यों हैं  उसे समझाऊं मैं तो कैसे  तेरा खुशी का धुआँ मेरा है आंसुओं का फिर धुएं में नशा कैसे  ये मदहोशी कैसे  गम खुशी का धुआँ  जिंदगी का धुआँ जब भी जला  जला है आरज़ू का धुआँ कहीं चाहत में जले कहीं रूसवाई में  जिंदगी सुलगती रही  हमको धुआँ होना ही पड़ा आज लब पे हैं कि  उसको मेरी जरूरत है  काम निकला जो हमें रूसवा होना ही पड़ा होंठों पर जब रहे तो प्यार था धुआँ  आंखों में चुभ रहा  जाने किसका धुआँ  धुआँ सभी का है  धुएं का यहाँ कोई नहीं  : शशिप्रकाश सैनी

अधर्मी है कविता

इस तक से उस तक  या पुस्तक की कविता  कहाँ से चली थी  कहाँ तक की कविता मुझको छूई थी  तेरा दिल छूएगी किस किस की धड़कन  समाई ये कविता अर्थ अनर्थ  या व्यर्थ में बोली  बहरों में किसने  सुनाई ये कविता मंचों पर चढ़ कर उतर कर ना आई सिफारिश कोई  ला पाई न कविता न लाली न रंगत  न गोरापन बदसूरत बड़ी थी  मनभाई न कविता रोटी के सपने  रोटी की बातें  शब्द अपने बेचें  कमाई न कविता हंसी ठिठोली  ताली पर ताली  लतीफ़ों को हमने  ओढ़ाई न कविता हाँ चाहा था कभी  सुने लोग कविता  सुनाऊ मैं कविता  जा नहीं सुनाता चने पर ये कवि  और नहीं जी पाता मांस मदिरा सुट्टा लगेगा  अधर्मी कवि की  अधर्मी है कविता : शशिप्रकाश सैनी

नई सुबह के लिए

न यहाँ के हैं न वहाँ के हैं  न जाने बने है  हम किस जगह के लिए दिल धड़काए हम जितना कोई सुनने वाला नहीं अब और भी धड़के  तो किस वजह के लिए थक गया हूँ बहोत  थोड़ा सोने दो  जागना है मुझे  नई सुबह के लिए : शशिप्रकाश सैनी

खाली फुकट के तिवारी जी

आज आँख खुली तो पाया हमारे फ़्लैट में खाली फुकट के तिवारी जी घूम रहें थे, ये दिन भर खाली रहते है कौनों काम नहीं इस लिए इन्हें खाली कहा जाता है और फुकट इस लिए कि दिन भर फुकट का सुट्टा ढूंढते रहते है, और हम जी इस लिए लगाए दिए कि जब से आप पार्टी अस्तित्व में आई है कौन जानता है कौन खाली आदमी कब मंत्री बन जाए | इनका पसंदीदा काम है दिन भर बिरहा सुनना घाघरा चोली वाले भोजपुरी गाने इनको सबसे प्रिय है और जब हम से छत पे भेट जो जाती है तो हमे भी जबरदस्ती सुना देते है, ये कहते हुए देखे कवि जी बम्बई में रहते हुए भोजपुरी भूल तो नहीं गए | आज का किस्सा ये है कि आज ये हमारी अम्मा के भेष में आग गए और बोले “कवि जी शादी काहे नहीं कर लेते हो अब तो तुमारी दाढ़ी भी पकने लगी है, ये ही सही बकत है कर लो बाद में कौनो नहीं मिलेगी” अभी बस सो के उठे ही थे और ये वज्रपात मन तो किया इन्हें दंडवत प्रणाम करे फिर सोचे कि हमारा दंडवत जिसे लग जाएगा बिचारा प्रणाम करने लायक नहीं रहेगा, फिर इनपे आगई हमको दया, जवान जुवान लड़का है अभी से इनका प्रणाम खराब कर दिये तो जिंदगी भर कुछ न कर पाएंगे, हम नजर अंदाज किए और सोच

जिंदगी तमन्नाओं का शिकार हो गई

जिंदगी तमन्नाओं का शिकार हो गई  टूटते रहे पल-पल, हम कहीं के न हुए -------------------------------------------------- कितनी बार मुस्काना पड़ा  दर्द अपना छिपाना पड़ा  आंसुओं पे हँसने वालों से  मरहम की उम्मीद भी क्या रखे ------------------------------------------------- हर मोड़ मुखौटे बैठे हैं हर रस्ते पर बाधा है दुनिया के ढोंग पिटारे में धक्कम धक्का ज्यादा है : शशिप्रकाश सैनी 

अंधकार घोर अंधकार

प्रत्यक्ष क्या है अंधकार घोर अंधकार, पर संसार कहेगा अंधकार कहा है, सुबह हो चुकी है, चिड़ियों की चहक सुनो वो भी प्रकाश पर्व मना रही हैं। हाँ मैं मानता हूँ सुबह हो चुकी है, पर अंधकार तो है, यह मेरा अंधकार है ये आपके अंधकार से अलग है, जग के सूरज की रोशनी नहीं पहुंचती यहाँ, मैं उस भटके हुए यात्री की भाँति हूँ जिसे दिशा भ्रम हो चला है, और जब तक मुझे मेरी सही दिशा नहीं मिलेगी तब तक संसार का कोई प्रकाश स्रोत मेरा अंधकार दूर नहीं कर सकता, अंधेरा अंदर है तो उजाला भी अंदर से ही आना होगा । : शशिप्रकाश सैनी

भितरी क हई, भितराय देब

भितरी क हई, भितराय देब कनवा के पकौड़े, हीरा की चाय, मुस की इस्त्री, ये तीनो मेरे गाँव की खासियत हुआ करती थी, गाँव भितरी (सैदपुर) जिला: गाजीपुर, उ.प्र . कनवा के पकौड़े तो हम कभी चख नहीं पाए हाँ उसका बेटा भी कोई कम अच्छे पकौड़े नहीं बनाता था, जिसका लुत्फ़ हमने बहुत उठाया पर पापा कहते हैं कनवा के पकौडों के सामने ये कही नहीं ठहरते हमारे नसीब में तो ये भी था, अगर कभी हमने शादी की तो हमारे बच्चों के नसीब में ये भी नहीं होगा, कनवा का बेटा पईसा कमाने बम्बई चला गया करीब चार साल पहले, अब वहां साइकिल रिपेयर की दुकान है. हीरा की चाय! जरुर पी पर बस एक बार यही कोई डेढ़ साल पहले BHU में MBA के दौरान, अगले सप्ताहांत में जब फिर गाँव गए तो पाता चला हीरा ने आत्महत्या कर ली, अब हमारे गाँव की एक और खासियत चली गई. अब जो बचा है, वो है मुस की इस्त्री, मुस कि इस्त्री किए हुए कपड़े एक धुलाई बाद भी बिलकुल इस्त्री किए हुए लगते है, बुढा तो मुस भी हो गया है न जाने कब चला जाए कह नहीं सकते, जैसे मुन्ने भाई चले गए उन्ही के स्कूल में हम गधइया गोल टक पढ़े थे, मुन्ने भाई का आम का बगीचा हुआ करता था, दसहरी आम के उस बगीचे के तो क

ये कवि बड़ा बेबस है

गर्मी है घमौरियाँ हैं उमस है ये कवि बड़ा बेबस है घर जा नहीं सकता वहाँ की बरसात यहाँ ला नहीं सकता कई रातें चना ही बना है भयंकर भूख का जवाब माँ के हाथ का खाना एक सुहाना ख्वाब हौसला आसमां कभी कभी जमीं पर हो जाता है मौका हो या रिश्ता मेरे छूने से पत्थर हो जाता है कुछ नहीं पत्थर होता तो यह दिल यह आंखें आंखों में ख्वाब भरे दिल धड़कता ही रहता है : शशिप्रकाश सैनी

राह मन की

राह मन की मुश्किल बहोत फिर क्यों डटा हुआ? मोड़ सन्नाटे से भरे भय चेहरे से छलकता हुआ मंजिल दूर पाँव जख्मी निशान खून के पर चाहता था अब पैर भी नहीं चलोगे कैसे ? कोने में टूटी सी वो चीज क्या है ? अच्छा ! तुम्हारा हौसला है तुम बहादुर थे ना जिद वाले जिद्दी फिर टूट क्यों गए उठो और लड़ों क्या महादेव में आस्था बस नाम भर की है कुछ सीखा नहीं क्या ? हलाहल पी कर जीना पड़ता है अमृत हलाहल बाद ही निकलता है पहले हलाहल पियो तो सही भागते क्यों हो :  शशिप्रकाश सैनी

Flyover प्रेम

आज बहोत थका हुआ था, सोना चाहता था अभी भी आंखों में नींद है, पर एक बार फिर से शकरपूर फ्लाईओवर पे बैठा हूँ और घड़ी बता रही है कि पांच बजने को है। लगता है यह फ्लाईओवर हमारे प्यार में पड़ गया है देखिए जबरदस्ती मुझे बुला लिया, बिजली कटवा कर हद है। बड़े वक्त से तमन्ना थी कोई हमारे प्यार में पड़े हम किसी के प्यार में पड़े, पर यह तो भगवान ने हद ही कर दी, कोई लड़की नहीं बची थी क्या? सीधे फ्लाईओवर को हमारे इश्क़ में डाल दिया। भगवान न हुआ कपिल शर्मा हो गया बात बात पर मजाक, आपको दर्शक बना दिया मेरी जिंदगी को "Comedy Life with God"। हाँ माना हम सब उसकी कठपुतलियां हैं पर इसका मतलब यह नहीं कि पूरी फिल्म में मुझसे Comedy sequence ही कराए जा रहे, यार कुछ Romantic scene डाल देते कुछ Stunt type, Stunt type इसलिए कि जो हमारा आकार है उस हिसाब से हम सिर्फ खाने या सोने के साथ Stunt कर सकते हैं, सोने से याद आया चार-पाँच Bedroom scene भी डाल दो, प्लीज भगवान अब तो दाढ़ी भी पकने लगी है कब डालोगे Bedroom scene। उम्र बीती जा रही है और चंद्रगुप्त ने भी हमारी script में बस comedy लिखी, अइसा है गुरु ज

Love at first sight By Akanksha Dureja

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पिछलें दिनों मन में एक विचार आया क्यूँ ना हम भी अपने ब्लॉग पे गेस्ट पोस्ट शुरू करे, ये विचार आते ही हमें आकांक्षा जी की याद आई, जो हमारी अच्छी मित्र और ब्लॉगर होने के साथ साथ कवयित्री भी हैं. जैसे ही हमने उसने अनुरोध किया उन्होंने हामी भर दी और आज देखिए इतनी सुन्दर अंग्रेजी कविता भेजी है और साथ ही लन्दन की तस्वीर भी. पढ़िए और आनंद लीजिए. आकांक्षा जी को और पढ़ने का मन करे तो ये उनका ब्लॉग  Direct Dil Se .  For me it was love at first sight  And you reciprocated for my delight Days were rainbows, Written with vows Spring coloured my life shiny and bright. Letting myself go wasn't easy I flew with your thoughts so breezy Spellbound by the Thames, I made new aims With you, even the clichés didn't seem cheesy. I still remember that night so starry I was drunk on life, don't blame the sherry In your arms, with your charms It felt so right like a happy love story. Like all good things, it didn't last My heart will forever be in y

इश्तिहार

आज एक बार फिर शकरपूर फ्लाईओवर का रूख किया है, बार बार यहाँ क्यों आता हूँ शायद बनारस के घाटों की याद खींच लाती है, तुलना तो मुमकिन ही नहीं इस फ्लाईओवर और मेरे चेत सिंह घाट की, 'मेरा' लागाव वश बोल रहा हूँ अधिकार से नहीं। यहाँ गंगा नहीं यमुना भी कुछ दूर पर है, शोर बहुत है यहाँ, हाँ यह खुला आसमान उस जिंदगी को याद करने मे मदद तो करता ही है, शायद इसलिए आ जाता हूँ यहाँ। सड़क की उस पटरी पर दो लोग इश्तिहार पर इश्तिहार चिपका रहे हैं, CET के इश्तिहार के ऊपर B.Ed का इश्तिहार चिपकाया जा रहा है। बस जिंदगी भी कुछ ऐसी ही है आप सारी उम्र अपना इश्तिहार बनाने में लगे रहते हैं, किसी तरह खींच खाच कर गर आपने अपना इश्तिहार लगा भी दिया तो अगले ही दिन कोई आएगा गोंद लगाकर अपना इश्तिहार चिपकाता जाएगा, उसका भी इश्तिहार कुछ ज्यादा दिन नहीं टिकना वहाँ पर, यहाँ हर शेर पर सवा शेर मौजूद हैं। आखिर हम और आप हैं क्या किसी दीवार पर हजारों इश्तहारों के नीचे दबे इश्तिहार ही तो हैं और बजार में रोज नए इश्तिहार आते हैं और हम दबते चले जाते हैं। क्या कहा! आपको हजारों इश्तहारों में इश्तिहार नहीं बनना, तो कुछ अलग क

मैं न बदलूँ अगर तो

मैं न बदलूँ अगर तो वो हैं कहती ढीट हो तुम और जो चाहूँ बदलना मोम की भाँति बने तुम जो झुके वो रीढ़ कैसी अब की फंसी जान सांसत धार पे मुझको चलाएँ हाँ मैं कह दू, तो फंसू मैं ना मैं कर दू, तो है आफत मुझे कुछ अब सुझता ना जब मिले थे बार पहली हर अदा में प्यार था जी रंग कुछ यूँ है बदला जो शब्द कभी चाशनी थे  आज नीम की कौड़ियाँ है : शशिप्रकाश सैनी //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Free ebook में उपलब्ध Click Here //

अंतिम उजाला

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जो किलकारी से शुरू हुई  वो सांस की डोरी टूट गई  जीवन था क्षण भर का साथ ये दुनिया तुझसे रूठ गई  सब आडंबर सब स्वारथ को राख यही हो जाना है इस अंतिम ज्वाला से होकर  उस पार अकेले जाना है  देखा सब इन आँखों ने   रंग बदलती दुनिया देखी रिश्ते नाते सब झूठे है  सच्चा है शमशान बहोत  आना जाना लगा रहेगा हर रात यहाँ पे भारी है  आज इसे कंधों पे लाए कल तेरी भी बारी है आंसू हंसी प्यार का गठ्ठर जितना हो उतना कम रखकर उस पार कुछ मालूम नहीं  कितना है चलना बाकी  जन्तू प्रेम बढ़ा बैठा है  वस्तु प्रेम बहोत है तुझको  आग सत्य है राख सत्य है  बाकी सब कुछ मिथ्या है  किस पल आए बोल बुलावा  किस पल हमको जाना हो इस पल जो तू देख रहा है  शायद यही अंतिम उजाला हो  : शशिप्रकाश सैनी  //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Free ebook में उपलब्ध Click Here //

बनारस और हम

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मेरा परिवार मुंबई में बसा हुआ है पर मूलतः हम है बनारस के पास गाजीपुर से, ठीक ठीक लगा लो तो बनारस भी कह सकते है, पर बनारस कभी कैंट रेलवेस्टेशन से ज्यादा देखा नहीं. पिछली सर्दियों में माँ को बोला कि ये आखिरी साल है BHU में फिर MBA खत्म हुआ तो पता नहीं किस्मत कहा ले जाए, MBA के बहाने ही सही आप लोग चले आओ आपको बनारस घुमा देता हूँ. पापा को घूमने के लिए मनाना कोई आसान खेल नहीं है, एक मोर्चे से तो कभी बात ही नहीं बनती, इस के लिए हमें दो मोर्चे खोलने पड़े एक माँ कि तरफ से, दूसरा बहन की तरफ से. माँ तो माँ है मान गई पर बहन तो बहल सकती नहीं उसे कुछ सोलिड लालच देना पड़ा, कुछ ख्वाब दिखाएँ और बनारस के ख्वाब बेचने में राँझना फिल्म हमारे बहुत काम आई. ख्वाबों ने असर दिखाना शुरू किया बहना ने भी अपना मोर्चा खोल दिया, पापा कितने भी सख्त क्यूँ न हो हैं तो आदमी ही और जब दो औरते मोर्चा खोल दें तो बेचारा आदमी भी क्या करे रहना तो घर में ही है, पापा को भी मनना पड़ा और दिसम्बर का दौरा तय हो गया. जिस दिन मेरा परिवार बनारस लैंड किया उस दिन सैमसंग के कॉलेज में प्लेसमेंट के लिए आने के आसार बनने लगे, ह

PACH प्रदेश Episode 3

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वैद्य के कहें अनुसार एक आदमी हल्दी लेने चला जाता है दूसरा काव्य कुँए कि तरफ भागता है | हल्दी लेने भुलक्कड़ राम गए है और जाते ही हल्दी का नाम भूल जाते है और दुकानदार से बहस होने लगती है | (किराना दुकान पर का दृश्य) भुलक्कड़ राम : हमको एक ठो चीज चाहिए दुकानदार : फल दे दूँ या बीज चाहिए भुलक्कड़ राम : हम ना बोले वो बोले है दुकानदार : नाम बताओ तब ले जाओ बे पईसा के दें दें तुमको इतने भी हम ना भोले है भुलक्कड़ राम : ओही जो मरहमपट्टी करते जख्म लगे तो ओही भरते जिनके हाथों नेक दुआ है उनका ही आदेश हुआ है दुकानदार : सीधे तुम काहे नै बोले वैद्य बुलाए सामान ले चलो चाहें तो दुकान ले चलो भुलक्कड़ राम : दुकान नहीं हमे दवा चाहिए जख्मी मन को ठंडक दे दे ऐसी हमको हवा चाहिए दुकानदार : खेल न खेलों न खिलवाओ सीधे बोलो क्या चाहिए जख्मी मानुष तड़प रहा है उसकी ना हमें आह चाहिए जल्दी बोलो क्या चाहिए भुलक्कड़ राम : पेड़ न डाली, पौधा है रंग से पीला औ शर्मीला माटी के अंदर छुप रहता दुनिया कहती जड़ है जड़ है जड़ है जड़ है फिर भी देता जीवन है दुकानदार : देर लगी तुम्हे जल्दी चाहें सीधे

एक अंतहीन राह

पैरों में हवाई चप्पलें, पैरागान की नहीं महंगी वाली बाप के पैसे की, खुद की औकात एक चप्पल खरीदने भर की नहीं फिर भी आंखों ने ख्वाब पाल लिए। सड़क की उस पटरी पर एक शख्स कुत्ता टहलाता हुआ, सड़क की इस पटरी पर ख्वाब इसे टहलाते हुआ, उस तरफ इंसान मालिक है, इस तरफ ख्वाब मालिक है। इंसान कुत्ते को हकीकत खिलाता हुआ, हकीकत माने रोटी और बोटी , जो मिले तो हकीकत नहीं तो ख्वाब । सड़क की इस पटरी पर ख्वाब इंसान को ख्वाब खिलाता हुआ, ख्वाब जो हकीकत नहीं क्योंकि ख्वाब तो ख्वाब ही होता है ना, देखते सभी हैं उस पर निकलते कम ही हैं, ख्वाब ! ख्वाब रोटी और बोटी नहीं जुटा सकते क्योंकी ख्वाब, ख्वाब की ही खुराक दे सकते हैं और वहीं दे रहें हैं, पर कब तक यह हवाई चप्पलों वाला ख्वाब पर जीएगा । समाने एक फ्लाईओवर है, गाड़ियाँ ऊपर से जाती है और रेल नीचे से , सड़क पर छोटी बड़ी मझौली हर तरह की गाड़ियाँ जाती है, पर पटरियों पर सिर्फ लंबी रेलगाड़ियां, और जब रेलगाड़ी गुजरती है तो फ्लाईओवर कांपता है, फ्लाईओवर की सड़क कांपती है, और सड़क पर चलती छोटी मोटी मझौली गाड़ियां भी। सड़क हर वक्त भरी रहती है ट्राफिक जाम हो जाता है, रेल क

आकांक्षा और शशि की पहली जुगलबंदी पेशकश

हजरात हजरात हजरात  आपके सामने पेश है  आकांक्षा और शशि की पहली जुगलबंदी पेशकश हम बजरबट्टू थोड़े से मुरख इस कविता में आकांक्षा जी पूरक आकांक्षा जी का ब्लॉग :  Direct दिल से  ----------------------------------------------------------------------------------------------- “लिखे हुए तीन महीने हो गए  जंग लग गई है”  तो मिलके काफी या चाय से भिगोया जाए  जंग को धोया जाए  “काफी या चाय नहीं  कोक की चुस्की” गर्मी हैं ना सही बात है  फिर भाड़ में जाए काफी  चाय को आग में झोक  मैं भी पियूँगा कोक  “लस्सी भी चलेगी वैसे  गर ज्यादा खर्च करने हो पैसे” हाँ देशी उपाय  गर्मी भगाए  “कविता हो गई ये तो” सोचिए जब बैठेंगे साथ  तो क्या होगी बात  “क्या बात क्या बात” हो गई जुगलबंदी की शुरुआत “फूटेंगी कविताएँ बनेगी बिगड़ी बात” मौसम भी हो जाए मेहरबान  कर दे बरसात  “और हो जाए चाय पकौडो का साथ” कितने मिलते है हमारे ख़यालात  “जैसे मिलेंगे जमीं आसमां, बहाने बरसात” सोंधी माटी की महक के साथ  “कविताएँ करेंगे हम दिन रात”  भरेंगे हर शब्द