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Showing posts from October, 2013

कुर्सी मोह में हम इतने न हो जाए अंधे

कुर्सी मोह में हम इतने न हो जाए अंधे जिंदगी के हर रिश्ते को सीडी कर दे जिंदगी को इतना न निचोड़े कुछ जीने को जिंदगी उनको भी छोड़े कल को रुकसत हो और जाने लगे लोग अपने ही पराया न बताने लगे आखिर में बड़ा कितना भी हो जाए सिकंदर उसको भी चाहिए चार कंधों का सफर : शशिप्रकाश सैनी //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Free ebook में उपलब्ध  Click Here //

गर भलाई का बदला भला होता

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गर भलाई का बदला भला होता तो मेरा हाल न इस तरह होता  सुखी टहनीयों पे कोई चलाता नहीं पत्थर  पत्थर उन्हीं के लिए, जो फलों से लदा होता  मेरी छांव ने, जिन्हें पाला, जिन्हें पोसा जड़ खोदने से पहले मुझसे कहा होता  अब की कुर्सी, पलंग, दरवाजा बना हूँ 'सैनी' काश इस सावन भी, मैं झूला बना होता  : शशिप्रकाश सैनी //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Free ebook में उपलब्ध  Click Here //

माँ, ये रंग होता क्या है ?

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This post has been published by me as a part of the Blog-a-Ton 42 ; the forty-second edition of the online marathon of Bloggers; where we decide and we write. To be part of the next edition, visit and start following Blog-a-Ton . The theme for the month is "COLOR" माँ  पिंकू कहता है, कल होली है वो रंग लाया है लाल हरा पिला नीला  मुझे भी बुलाया है माँ  ये रंग होता क्या है ? ये होली क्या होती है ? मैंने क्यों खेली नहीं अब तक ? माँ, बताओं ना  लाल को लाल क्यों कहते है ? हरे को हरा क्यों ? क्या रंग तरल भी होता है ? और ठोस भी ? बरसात का भी कोई रंग होता है ? रंगीन होती है ओस भी ? माँ, मैंने सुना है हर चीज का रंग होता है तुम्हारा क्या रंग है ? और मेरा क्या ? क्या भईया का भी कोई रंग है ? मुन्ना का भी ? बताओं ना माँ  किस स्वाद में आते है रंग ? मीठे होते है, तीखे  या चटपटे ? माँ बताओं ना  किस स्वाद में आते है रंग ? माँ  क्या रंगों की भी कोई खुश्बू है ?  बताओं ना  गेंदे की महक जानती हूँ मैं 

चल गंगा पार चले

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शोर शहर को छोड़ आए अब की उस ओर जाए  जहाँ ताज़ी बयार चले  चल गंगा पार चले  बहोत चले अब तक  पीछे ही रहे कब तक  अब न उनकी कतार चले चल गंगा पार चले  कोई सुनाई न दे  आवाज दूसरी  बस तेरी मेरी पुकार चले चल गंगा पार चले  जो ख्वाब जागती आँखों ने देखे उस नींद से पहले सवार चले अब की लहरों पे अपनी पतवार चले  चल गंगा पार चले  : शशिप्रकाश सैनी  //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Free ebook में उपलब्ध  Click Here //