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Showing posts from September, 2013

कब होगी चारों ओर सुबह

रात भयावह भोर सुबह  दिल्ली हैं कमजोर सुबह रूपया रोए गरिमा खोए कब होगी चारों ओर सुबह हम होंगे घनघोर सुबह जब टूटेगी ये डोर सुबह सर के सर बदले काटेंगे कब होगी चारों ओर सुबह मानवता उस छोर सुबह हम होते आदमखोर सुबह  सबला बन नर मुंड पहन लो तब होगी चारों ओर सुबह  जनता में क्या जोर सुबह  कुर्सी को झकझोर सुबह राजवंश का राज हटे तब होगी चारों ओर सुबह  नाचे मन में मोर सुबह कानों को दे शोर सुबह मालिक हम तुम नौकर हो तब होगी चारों ओर सुबह  : शशिप्रकाश सैनी //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Free ebook में उपलब्ध  Click Here //

हिंदी की व्यथा

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"बहुत दिनों बाद किसी को प्रेमचंद पढ़ते देखा हैं" ये टिप्पड़ी एक सह्यात्री ने लोकल में मुझे 'सेवासदन' पढ़ते देख की | अब समझ नहीं आता इस बात से मुझे प्रसन्न होना चाहिए ? की उसने मुझे साहित्य प्रेमी जाना होगा| या मुझे खिन्न होना चाहिए ? की उसे ये टिप्पड़ी करने की नौबत ही क्यों पड़ी | खजाने क्या क्या न थे घर में मेरे रात चांदनी सूरज किरणे पत्तो ओस पलकों आँसू भोर चिड़िया चहक उठी मिटटी सोंधी महक उठी सब भूले धुत्कार दिया जो माथे चन्दन होनी थी धुल समझ फटकार दिया मोती घर के अब, और भाते नहीं रंगीन कौड़ियों ने , हमे कुछ ऐसा ठगा : शशिप्रकाश सैनी //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Free ebook में उपलब्ध  Click Here //

जब दिनकर कलम पुकारी थी

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शब्द शब्द सब ज्वालाएँ  कंकड़ भी चट्टान हुए  हर शब्द कविता भारी थी  जब दिनकर कलम पुकारी थी  "लोहे के पेड़ हरे होंगे" जब नयन स्वप्न भरे होंगे  गर राह में प्रतिबिम्ब खड़ा  खुद से भी लड़ना होगा  "शक्ति और क्षमा क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल सबका लिया सहारा" करुणा का गान सभी को  आता अगर समझ में  ह्रदय सभी के होते कोमल  प्रेम पनपता रज रज में  जुल्म हदों से पार गया और नहीं सह पाती हैं  लहू नसों में दौड़े जनतंत्र गीत ये गाती हैं  मत अपना मत अधिकार समझ कर्तव्य समझ "सिंहासन खाली करो कि जनता आती है" कुरुक्षेत्र, उर्वशी, रेणुका, रश्मिरथी जब पढता रचनाए इनकी  रोंगटे हो जाते खड़े  आंखे आदर में झुक जाती हैं  जन्मदिवस पे नमन करू  राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जी  वीर रस की ज्वाला को  क्रांति की कलम को  सत सत नमन करू  मैं कलम छोटी सी  : शशिप्रकाश सैनी //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Free ebook में उपलब्ध  Click Here //

जरा पर्दा करा करो

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Photo Courtesy: Anushree Pal मोहब्बत  इस शहर का, मर्ज बड़ा गहरा हैं  वबा (महामारी) न हो जाओ , जरा पर्दा करा करो  निगाह  तेरी देखी,  हम क़ैद में आना चाहे  शहर मुजरिम न हो जाए, जरा पर्दा करा करो  अदाएं अपनी थोड़ी, कम ही रख, नशा बहोत इनमे  मयकदा दुश्मन न हो जाए, जरा पर्दा करा करो उम्मीद  इतनी न बढ़ा, वो पूजने लगे तुम को  कल मजहब न हो जाओ, जरा पर्दा करा करो कागजो  में अगर इतनी यूँ जान डालोंगी  कल को तुम्हे पूछे नहीं  इन्हें ही घुरा करे फिर न कहना की हम कहते न थे  जरा पर्दा करा करो  : शशिप्रकाश सैनी  //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Free ebook में उपलब्ध  Click Here //

मेरी हिंदी पखवाड़ो में नहीं बंधी हैं अभी, आजाद हैं

अभी एक मित्र ने कहा भाई तुम तो कवि हो, हिंदी दिवस पे कोई कविता नहीं की, हिंदी को याद करते हुए कुछ लिखो| क्या तुम हिंदी का सम्मान नहीं करते, या बस उपयोग भर का हैं तुम्हारा साथ| पहली बात तो ये हैं मित्र, याद उसे किया जाता हैं जो दूर हो जिसे खोने का डर बना रहता हो | मुझे से तो ये आँचल छोड़े नहीं छूटता, माँ कोई चीज थोड़ी ही है जी में आया अपना लिया फिर मन उक्ता गया छोड़ दिया| हिंदी माँ हैं मेरी बस भाषा भर नहीं है, जिसने मुझे बोलना सिखाया, जिसने मुझे शब्दों का सहारा दिया, इतनी हिम्मत दी की मन की गहरी से गहरी बात मै दुनिया के सामने रख सकू बिना संकोच के | उस हिंदी को मेरी माँ को मै याद करू? जिसकी गोद मैंने कभी छोड़ी ही नहीं उसको याद करू? जब दुनिया डराती हैं बरगलाती हैं मैं कस के आंचाल पकड़ लेता हूँ 'सेवासदन' 'रश्मिरथी' 'मधुशाला' उठा पढ़ लेता हूँ कलम मेरी चलने लगती हैं कुछ सपने कविताओं में गढ़ लेता हूँ जिस हिंदी को मैं हर पल जीता हूँ, उसको मैं याद करू ? याद वो करे जो भूले बैठे हैं, जिन्हें महानगरो में हिंदी बोलने पढने में शर्म आती हैं, जिन्हें देवन

एक रुपया

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हर जीद का जवाब एक रुपया मदारी का खेल एक रुपया झुला धकेल एक रुपया गोला चाहे लाल एक रुपया बुढ़िया के बाल एक रुपया क्या बाजार जाना एक रुपया कुछ भी मंगाना एक रुपया मुझको मनाना एक रुपया मेरा खजाना एक रुपया मेरी किस्मत कमाल एक रुपया चाहे गोल्क में डाल एक रुपया चाहे मुझसे ले लो अनेक रुपया लौटा दो वो वक़्त  मेरा वो एक रुपया वो भी क्या दिन थे बचपन के एक रुपया बहोत था अमीरी के लिए : शशिप्रकाश सैनी //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Free ebook में उपलब्ध  Click Here //

खट्टी मीठी नारंगी

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This post has been published by me as a part of the Blog-a-Ton 41 ; the forty-first edition of the online marathon of Bloggers; where we decide and we write. To be part of the next edition, visit and start following Blog-a-Ton . The theme for the month is "SWEET AND SOUR" चार चवन्नी पाई जब सेठ चाल लहराई तब न मिलता न मैं बात करूँ  दुनिया पैरों लात धरू एक रूपये में चार मिले हर नुक्कड़ पे यार मिले  गोली खट्टी मीठी वो स्वादो का संसार मिले खट्टा मीठा स्वाद लिए खट्टी मीठी याद लिए बचपन की वो यारी सब जेबों को प्यारी जब मम्मी ने मना किया  एक अठन्नी देती ना सड़क राह में लोटे थे आंसू मोटे मोटे थे  हाफ नीकर वाले हम थे रूपया कम था वक्त बहुत  नारंगी खिचातानी में बहना संग था सख्त बहुत  जब पैसों का अम्बार  हुआ समय नहीं इस बार हुआ  अब न लडते बहना से  न यारों में हम सेठ बने  पिज्जा बर्गर कोला मैं सब से जा के बोला  चाहे जितने पैसे ले मुझको वो स्वाद चखा दे जो देती मेरी नारंगी वो खट्टी मीठी नारंगी