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Showing posts from June, 2013

कविताओं की बैशाखियां है मेरी

शब्द अटक जाते है मै बोल नहीं पाता एक काव्य का सहारा हैं  दूजे दरवाजो दिल खोल नहीं पाता  कई ब्लॉगर मित्रों ने दिये  मुझे अवार्डस प्यार से  और मेरे जवाब  न इकरार से न इनकार से  न मै अवार्ड ले पाता हूँ  न आगे दे पाता हूँ  असमंजस में हूँ  जूझता हूँ मझधार से  मै अपाहिज सा हूँ कविताओं की बैशाखियां है मेरी  रोऊ कविता हसूँ कविता  और जब कन्फेस करू  तो भी कविता  मेरी रही ये दुविधा  जब मुह खोलू  बोलू कविता मै मंदबुद्धि कवि : शशिप्रकाश सैनी

बरस बरस के आंख ने बताया कुछ नहीं

बरस बरस के आंख ने बताया कुछ नहीं  दिल रोता रहा उसे समझ आया कुछ नहीं  प्यार प्रेम जब से बाजार के हुए  दाव पे फिर हमने लगाया कुछ नहीं  खनक सिक्को की जिसे अच्छी लगने लगे  कविता भाव गुलदस्ते उन्हें भाया कुछ नहीं  मतलब के रिश्ते है मतलब का है लगाव  मतलब के सिवा उसे नज़र आया कुछ नहीं  वैसे तो कविताएँ  "सैनी"  की नीरस लगे उन्हें  अज बोलती है बहुत दिन हुए तुमने सुनाया कुछ नहीं  : शशिप्रकाश सैनी 

देश मेरा बाजार हो गया है यूँ

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देश मेरा बाजार हो गया है यूँ  हाथ तिरंगा ले  गर मै जन गण मन करू  भाव देशभक्ति का  या बेचते हो तिरंगा  किस पार्टी से हो  क्या छुपाए अजेंडा  हर नियत पे शक  बिक रही इंसानियत  हाथ मतलब का बढ़ाए खंजर दूजे में छुपा के  गर मिले मौका कभी सर ही तेरा काट ले  वो लाशो पे सौदे करे  मंत्री बिके संत्री बिके  कभी एक बोतल दारू पे  कभी आरक्षण की लालसा  कही जाती से तोला गया  कही धर्म पे हम बिक गए  कभी चावल पे  कभी बिके गेहू पे हम  कभी टीवी का लालच  कभी लैपटॉप का झुनझुना  साडी बटे कपडे बटे  हम हर किसी पे बिक गए  बिकते बिकते आज हम  बिकाऊ कितने हो गए  : शशिप्रकाश सैनी

मनडे पे रोए कैसे

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दो महीने से घर बैठे  काट रहा है संडे डिग्री कोई काम न आई  न चार जुटाए पैसे  हम सन्डे से परेशान हुए  मनडे पे रोए कैसे  सन सन सन सन करे  मै कैलेण्डर न देखू  दिन का है कुछ पता नहीं  न वक़्त मेरा ही बदले  कब से अटकी सुई है  दर्द हुआ है पगले  भाग्य भरोसे धोखा है  सन्डे बन के बैठा है  मुझको भट्टी में झोंका है  किस्मत पे कब से ताला लटका  इंजिनियरिंग में मंदी ने मारा  एम् बी ए कर क्या कम मै भटका  न दर तक मेरे आई  बस हाथ लगी परछाई  बटूए में सिक्को खनक नहीं  छाई जब से तन्हाई  अपनों का अपनापन छुटा पीठ मुझे दिखलाई  तेरा खून चूसता मनडे है मेरा खून सुखाए सन्डे है  महीनो से है दिन न बदला  न बदली मेरी रात  मुह छुपा के घर में बैठे  सडको पे रुसवाई है  क़ाबलियत का झुंझना  और मत बजा  भाव मेरे दर्द है  शब्द मेरी लाचारी है  हासला डिगने लगा है  किस्मत का तमाचा भारी है  : शशिप्रकाश सैनी

मंदबुद्धि कवि की कहानी

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बचपन की बात हैं पांचवी से कविताओं का साथ हैं छठी में मित्र ने कहा था कलम जल्दी जल्दी चला तेरे नाम में भी लगेगा डॉक्टर फला फला जब सौ कविताएँ होंगी पूरी डॉक्टरेट की ख़तम हो जाएगी दुरी बाल मन वो नादान हम भी बुद्धू जो वो कहता गया, हम मानते गए भावनाओं की कढ़ाई में तेल खौलाते रहे कविताओं की जलेबीयां छानते गए उसने कहा था, बहोत पैसा हैं कवियों की जेब, खजाना कुबेर जैसा हैं लालची हम तब भी थे सिक्को की खनक में खींचे हम चल पड़े पीछे पीछे आठवीं तक होस आ गया था न डॉक्टरेट हैं, न पैसा हैं ये तो सब भ्रम हैं खयाली ख्वाब जैसा हैं पर तब तक हम पड़ गए थे प्यार में शब्दों और कविताओं के दुलार में खुद को जाहिरा करना रास आने लगा था ये बाल मन कवि हो चला था फिर लिखते गए लिखते गए ढेर हो गई कविता जिंदगी जब भी अंधेर हुई सवेर हो गई कविता : शशिप्रकाश सैनी  //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Free ebook में उपलब्ध  Click Here //

मेरे डैडी की जादूगरी

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ये ट्रेन जाती है तो कहा जाती है   ये हेलीकाप्टर उड़ता कैसे है   रात में सूरज नहीं दिखता, ऐसा क्यों   बाजार में सामान पे लगता है, पैसा क्यों   ये रास्ता मुड़ता कैसे है   ये बरसात कहा से आती है   ऐसे ही कई सवाल उटपटांग से निकलते थे मेरी जुबान से   सुबह स्कूल जाते   शाम घर आते   सवालों के कई तीर   छूटते थे मेरी कमान से   डैडी ऐसा क्यों, डैडी वैसा क्यों   डैडी देते, मेरे हर क्यों का जवाब   छोटा रिंकू अड़ जाने पे   किसी की न सुनता   मांगता था, मैं जिद्दी था बड़ा   मेरी हर जिद की पूरी मेरे डैडी की जादूगरी   अपने अरमानो से धुल हटाई नहीं   शौक तो थे, पर चीजे जुटाई नहीं   मेरी इच्छाओ पे कड़ी धूप न पड़े   कभी मेरे लिए छाता बने   कभी बिस्तर बने   पड़ोसी ने मुह पे किवाड़ मारी थी   क्यों क्योंकि जब मौका मिले ताकता था   रिंकू उसका टीवी झाकता था   डैडी ने छुट्टियाँ बेचीं   किश्तों में डैडी ले आए रंगीन टीवी   अब मारे किवाड़ किसीकी न हिम्मत हुई   आज भी जब, मैं मांगू भी नहीं   वो देने में देर नहीं करते   मेरी जिंदगी में उज

बचपन चिड़िया नटखट है

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कच्ची माटी का घड़ा था  वक़्त से पहले भरा  जिंदगी सौगात थी जो  उसको क्या तू कर गया  छोटे छोटे हाथ खिलौने छोटी सी वो गुडिया थी  बस्ता भोझ सही था उस पे  रिश्ता भोझ चढ़ाया क्यों  कलम जिन हाथो में शोभा  चूल्हा चौका क्यों थोपा  थोपा है क्या क्या तूने  बचपन भट्टी में झोखा  ज़िन्दगी अपनी रफ़्तार से आती  सही वक़्त पे चहेरा दिखाती  तब तक चलने का हौसला हो जाता  यूँ अंगारों पे न चलाती पैर जले हैं जले हैं हाथ उसके  अपनों ने छला हैं क्या क्या हुआ हैं साथ उसके  अपने ही बच्चो को कोई जलाता हैं भला  ज़िन्दगी का घिनौना चेहरा दिखा डरता हैं भला  बचपन न खा जाइये किसीका वो नन्हे पैर स्कूल चलने के लिए  उन्हें ससुराल की सीढ़िया न चढ़ाइए  अपने ही बच्चो के जीवन में व्यथा न लाइए  बाल विवाह कुप्रथा ये प्रथा हटाइए  पिंजरे में न क़ैद करे  न पंख किसी के तोड़े बचपन चिड़िया नटखट हैं आजाद इसे जी छोड़े  : शशिप्रकाश सैनी www.bellbajao.org

चल भाग चले

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उससे कहा, मैंने की चल हाथ मेरा थाम ले उसने कहा, घर के मेरे किवाड़ ही खुलते नहीं. खिड़की से निकल छत पे आ मै आऊंगा चल कूद ले तू थोड़ा तो साथ दे तब तो हम कोशिश करे. किवाड़ पुरानें तेरे जंग, लगी सी गई ताले ये दकियानूसी नयी चाभियों से खुलते नहीं. परिणयसूत्र को, बंधन ही समझ बैठी हो क्या मारे, पिटे, कुटे से बलम चाहें रहे रूठे से बंधे रहना है खूटे से परिणयसूत्र को, बंधन ही समझ बैठी हो क्या. आज की बुजदिली जिंदगी भर का रोना क्यों अरमानो को, अपने आसुओं भिगोना परम्पराओं की सूली पे लटके मिले इससे अच्छा है की भाग ले. तेरे होठों की मुस्कान की कीमत हमसे  बेहतर,  जानेगा कौन  उस मुस्कान के लिए खाते थे धक्के करते थे घंटो लोकल का सफर कौन जानेगा हमसे बेहतर आमों आम बन खूटे से बंधने चली खास तेरा इतराना खास तेरा शरमाना हैं खास मुझकों तेरी तेरा प्यार, तेरी नाराजगी पर रूठ इतना नहीं की मनाना हो ना सके. रिश्ता बोझ नहीं जिसे ढोना हो हर पहिए पे भार वही संग हँसना हो, संग रोना हो. आज रात आऊंगा तेरे लिए भी हौ

सामर्थ्य अब ebook में मुफ्त

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Download link बटुए पे भार नहीं  कविता है व्यापार नहीं अब मेरी किताब उपलब्ध है  e-book में, पोथी पे  जब मुझे न पड़ी चवन्नी मै क्यों चाहू अठन्नी चवन्नियों अठन्नियो से परे  जिसको मन भाए कविता वो पढ़े  मुफ्त है e-book डाउनलोड करे  अच्छी लगे तो मित्रों से भी कहें चवन्नियों अठन्नियो से परे  बस एक MB data लगे

जिंदगी मैंने खूब चखी

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जिंदगी मैंने खूब चखी कभी कुल्हड़ में रबड़ी कभी बनी लस्सी दिल ने जब भी बडबडाया   पैरों ने साथ निभाया हम चले अस्सी जिंदगी मैंने खूब चखी कभी दोने की चाट कभी बनी फुलकी ठंडी बढ़ी तो मलइयो हुआ ठाठ बम्बइया जेब पे लगे पूरी हल्की रातो को जगना चखा हॉस्टल से लंका भगना चखा चाय की चुस्की की चाहत बढ़ी बन से मलाई और मक्खन चखा शामो सुबह घाट और गलिया बनारस में क्या नहीं चखा दोस्तों से मिर्ताबान भरा रहा कभी खट्टा कभी तीखा जब जो किया मन हमने चखा अपने जी का हरकते यहाँ क्या क्या न की    जिंदगी मैंने खूब चखी घर आ गए है जुबा से स्वाद उतरता नहीं है तस्वीरो यादों से मन भरता नहीं है बी एच यू बनारस ये स्वाद अनमोल हो गया यहाँ आने के लिए फिर पाने के लिए दिल तड़पता बारबार जब मौका मिलेगा चखेंगे अपनी झोली स्वादों से भरेंगे : शशिप्रकाश सैनी

चल छाता छोड़ चले

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Photo Courtesy बच्चा हो जाए फिर से चल छाता छोड़ चले डर डर के ना जीना मुझकों घुट घुट के ना जीना बचपन फिर बन आए चल छाता छोड़ चले अब की हर बूंद भिगाए कीचड़ सन कर हम आए हम भी बरसात निभाए चल छाता छोड़ चले     कितनी बरसाते खेला ना हवा गेंद में भर लाए बल्ला खूब नचाए चल छाता छोड़ चले जीवन गठरी मैली है गमगीन हुआ है कुर्ता रंगत बरसात बढ़ाए चल छाता छोड़ चले : शशिप्रकाश सैनी 

वक्त बता देता है चेहरों की हकीकत

वक्त बता देता है चेहरों की हकीकत वरना तो मिलने पे मुस्कुराते सभी है वक्त बुरा आईने जैसा अपने ही दिखे वरना तो दोस्त बन मंडराते सभी है वक्त पे हाथ पकडे ले चले राह में न छोड़ दे वरना तो उंगली उठा रास्ता दिखाते सभी है वक्त मरहम था बना की जख्म मेरे भर गए वरना तो घड़ियाली आंसू बहाते सभी है वक्त आग शीशा जला हीरा हीरा रहा ‘सैनी’ वरना तो खुद को हीरा बताते सभी है : शशिप्रकाश सैनी 

गर तुझको साधू होना है

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घुमत घुमत मैं जा पंहुचा चौखम्बा सट्टी के द्वारे एक खम्बा खड़ा पकड़ के साधू बोला भग रे लड़के फोटो मेरी खींच नहीं तू जो आगे मैं कदम बढ़ता राह में फिर वो साधू आता जाने क्या वो नाम बताता देर लगी चौखम्बा सट्टी बाबा देता ज्ञान की घुट्टी  क्षणभंगुर संसार है बेटा मोह लगा के रिश्ता पाला अंतिम में सब दुख ही देता नयी जगह पे नए है रिश्ते नयी हैं डोरी नए है बंधन जब टूटेगा तार कहीं से या छुटेगी पतवार कहीं से हर कोने से कष्ट कहानी छोड़ दे कोना कर मनमानी चल मेरे संग साधू हो जा क्षणभंगुर संसार है बेटा साधू बाबा पूछे मुझसे "मणिकर्णिका कभी गया तू" मैं बोला "उस तरफ मैं राह न पकडूँ कवि हूँ मैं कविता करता लाश चिता से जी डरता" साधू झट से गुर्राया मुर्ख तू लड़के जिन्दा कब से काट रहा है बोटी बोटी बाट रहा है इज्जत पे आमादा है हैवानों से ज्यादा है मुर्दा ना तो बोल रहा मुर्दा ना तो डोल रहा जिन्दा जब से शैतान हुआ घर घर में शमशान हुआ जिन्दों से बच कर रह बेटा मुर्दे की तो अंतिम शैय्या देख जरा चुप चाप है लेटा अब भी डरता तो भाग भाग सके