Posts

Showing posts from 2013

बांहों में तुम

Image
शब्द मैं जुटाता रहा, भाव लापाया नहीं. तुम्हे महसूस करना, छूना तुम्हे, मेरी कल्पना से परे. दीवार, किवाड़, पर्दों में, तुम्हारा अक्श ढूंढा. दिल की कराह सुनी मैंने, आज फिर एक रात, तुम्हारे, बिना जी मैंने. और बर्दाश्त होता नहीं, पत्थर, कहने लगे हैं! लोग मुझे. मेरी धड़कने, तुम ले गई जब से. मैं अधुरा कवि, मांगता बस यहीं, अधरों पे मुस्कान, बांहों में तुम,  और थोड़ी सी जिंदगी. : शशिप्रकाश सैनी  //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Free ebook में उपलब्ध  Click Here //

हमारे महामना

Image
गुणों की खान कहूँ या ऊँचा आसमान कहूँ मन के भाव गहरे सिर्फ समस्याओं पे बाते न की कागजो से परे उतरे जमीन पे समाधान किया ईट दर ईट जोड़, खड़ा मकान किया भाव शब्द आकार ले उपजे कितने छंद   “ राधिका रानी ” पहली कविता कवि नाम मकरंद शिक्षा का मंदिर, ज्ञान की गंगा बोना था इन्हें बीज निज हित त्याग, तपस्या की देश भ्रमण कर आए एक करोड़ चौंतीस लाख दान में पैसा लाए “ भिखमंगों के सम्राट ” कहाए कालाराम प्रकरण याद दिलाता महामना के मन में जाती भेद न आता उच न कुल कोई निचा हैं एक ही घर के सब बेटे सारा जगत समूचा हैं स्वतन्त्रता सेनानी, दूरदृष्टा शिक्षाविद, सुधारक शब्द कम पड़ते बताने को महामना की गाथा सुनाने को हमारे महामना सैकड़ों जिंदगियों की कल्पना अधूरी आपके बिना जन्मदिवस पर नमन करू मैं कलम छोटी सी : शशिप्रकाश सैनी //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Free ebook में उपलब्ध  Click Here //

बादल में चाँद देखा, घुंघट में तुम

Image
बादल में चाँद देखा, घुंघट में तुम किसीकी हम राह जोहें किसकों भुलाएं वो भी छुपाएँ बाते, आधा अधूरा कभी पूरा न आएं तुम भी जब आएं बस बतिया बनाएँ किसीकी हम राह जोहें किसकों भुलाएं गंगा के तीरे जब भी मिलने हम जाएँ तुम भी न छूने दो, वो भी लजाएँ किसीकी हम राह जोहें किसकों भुलाएं तुम ने भी वादें किए, उसने भी वादें किए वादें मगर किसने कितना निभाएं किसीकी हम राह जोहें किसकों भुलाएं : शशिप्रकाश सैनी  //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Free ebook में उपलब्ध  Click Here //

लकीरें मेरी चमकती नहीं हम क्या करे

लकीरें मेरी चमकती नहीं हम क्या करे लड़ते हुए जिए या घुट घुट के जिया करे  लोग आएं फ़िक्र की बात ये समझा गए मानलो जिद ना करो वो करो जो दुनिया करे मैं भीड़ में न जाऊंगा भीड़ ना हो पाउँगा  हवा उड़ाएं साथ दे चाहें मुझे रुसवा करे  हिंदू हूँ सुना हैं कई जन्म मेरे पास जीने को सुनी सुनाई बताओं कितना हम भरोसा करे जो होगा यहीं होगा कहीं और अब होगा नहीं “सैनी” रगड़ माथा चमक निकले लहू निकले तो क्या करे  : शशिप्रकाश सैनी //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Free ebook में उपलब्ध  Click Here //

शाम होने को हैं

Image
शाम होने को हैं तुम कहाँ रह गई रह गई तुम कहाँ तुम कहाँ रह गई , अकेला मैं बिलकुल सहारा नहीं , रास्ते हैं वही ऊजाला नहीं , शाम होने को हैं तुम कहाँ रह गई हम हम थे , मैं में गुजारा नहीं , अब मिलना मुझी से गवारा नहीं , शाम होने को हैं तुम कहाँ रह गई दर्द तेरा ही तेरा हमारा नहीं ? रूठना भी ये कैसा पुकारा नहीं , शाम होने को हैं तुम कहाँ रह गई छोडो ये तेवर ये नाराजगी आओ ये किस्सा बढ़ाए वहा से यादे हमारी जहाँ रह गई : शशिप्रकाश सैनी //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Free ebook में उपलब्ध  Click Here //

मंगनी की साइकिल

Image
नमस्ते मैं राम प्यारी, अरे ऊ ठठरियां गाँव के बल्लू यादव हैं ना, उनकी साइकिल हूँ | यहाँ क्या कर रही हूँ ? जिला अस्पताल पे ! ऊ धिनू लोहार की औरत पेट से हैं ना, वहीँ धिनू ले के आए हैं हमे यहाँ, अभी अंदर गए हैं अकेली खड़ी थी सोचा आप से थोड़ा बतियाँ लूँ | ऊ का हैं की, बल्लू भईया के साथ सुबह दूध पहुचानें के बाद कौनों खास काम नहीं रहता हमकों, बल्लू भईया भी सज्जन आदमी किसीको माना नहीं कर पाते हैं | वैसे हमारे गाँव में तीन चार साइकिले और हैं, पर कोई दे तब ना, हम ही दौडती रहती हैं सबके साथ, चाहें केहुका इम्तेहान का नतीजा आना हो या केहुकी टरेन छुटती हो, अभी कल ही तो दौड़ी थी मटरू काका बीमार थे उनको लेके सदर अस्पताल | सही समझे ! हम ठठरियां गाँव का सार्वजनिक परिवहन हैं यानी मंगनी की साइकिल | बस कोई संकट में हो तो हमे ही याद किया जाता हैं, बहुत रुतबा हैं हमारा ठठरियां गाँव में | अरे देखो धिनू भईया आ रहे हैं, मुह काहे लटका हुआ हैं इनका, जरा पूछो तो जच्चा बच्चा ठीक हैं ना ! क्या लड़की हुई हैं, अरे सुनो सब लोग धिनू भईया के यहाँ लक्ष्मी हुई हैं, हम तो उसे लाडो बुलाएंगे और हाँ नयी चेन ल

ये मैं हूँ

Image
माथे पे बूंद पसीने की होठों पे हँसी, कौन हैं ये पैरों को हैं आराम नहीं  आँखों में चमक, कौन हैं ये कंधों पे भार बहुत ज्यादा हैं चाल दीवानी, कौन हैं ये मेहनत से नहीं डरता देखो बातों में रवानी, कौन हैं ये ये मैं हूँ, कल आप थे,  परसों कोई और होगा  कशमकश की तस्वीर,जो जी सकेगा,  वो लकीरों का सिरमौर होगा  : शशिप्रकाश सैनी //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Free ebook में उपलब्ध  Click Here //

अम्मा के हाथ के सत्तू के पराठें

Image
“कुकडूँ कु कुकडूँ कु” मुर्गे की बांग सुनते ही रिंकू की नींद टूटी, आंखे मलता हुआ बाहर निकला तो देखा कुहासा पड़ रहा हैं, रसोई में भागता हुआ गया जहाँ अम्मा खाना बना रही थी और बोला “अम्मा आज स्कूल नहीं जाऊंगा, देखो कितना कुहासा हैं” अम्मा नाराज हो के बोली “ रोज तेरे स्कूल न जाने के बहाने रहते हैं कभी कहता हैं पेट दर्द कभी कहता हैं ड्रेस गंदी हैं और आज कुहासा, मैं कुछ नहीं जानती स्कूल तो जाना ही पड़ेगा, जा नहा ले पिछवाड़े जाके” | मुहं गिराए रिंकू पिछवाड़े आया तो देखा दादी झाडूं लगा रहीं हैं, दादी से बोला “ दादी देखो अम्मा कुहासे में भी स्कूल जाने को कहती हैं” दादी ने कहाँ “मैं पानी गर्म कर देती हूँ, नहा ले और चुपचाप चला जा आज चार दिन से तू स्कूल नहीं गया, बिना पढ़े लिखे बाबु साहब कैसे बनेगा, मुझे मोटर में कैसे घुमाएगा”  जहाँ भी रिंकू की दाल न गली आखिर में उसे नहाना ही पड़ा, नाराज रिंकू बस्ता टांग स्कूल जाने को हुआ , तो अम्मा भागती आई और बोली “ बेटा नाराज क्यों होता हैं, ये ले नाश्ता कर ले आज मैंने तेरे लिए सत्तू के पराठे बनाए हैं, पसंद हैं न तुझे” रिंकू मुहं बनाता हुआ बोला “रोज वही पराठे

प्यार का रंग

Image
This post has been published by me as a part of the Blog-a-Ton 44 ; the forty-fourth edition of the online marathon of Bloggers; where we decide and we write. To be part of the next edition, visit and start following Blog-a-Ton . मेरा अकेलापन, मेरी खामोशी, मेरा यहाँ भी पीछा नहीं छोड़ती थी, जबकी इन ब्लागर मीटो में हँसी मजाक, गपशप, शोर शराबा सब कुछ था, शायद इसलिए की ये खामोशी मेरे अंदर थी, ऊपरी होती तो साथ छोड़ भी देती। पर इस बार कुछ ऐसा होना था, जो पहले कभी नहीं हुआ, "मैं आपको जानती हूँ, आप अमित हैं! ‘अमित की डायरी’ आप का ही ब्लाग हैं ना"  इन शब्दों ने मुझे झकझोर, मुझे अकेलेपन की नींद से जगाया, मेरी खामोशी तोड़ी। पल्लवी नाम था उसका, कहती थी " You know you're my favorite poet, मैंने आपकी सारी कविताएँ पढी हैं,  आप कितना अच्छा लिखते हैं  ।  " तारीफ़ किसको अच्छी नहीं लगती, मुझे भी अच्छी लगती हैं, पर शब्दों पे मेरा ध्यान बिलकुल न था, अब चाहे आप इसे मेरी बेशर्मी कहें या कुछ और, दिमाग शब्द समझ पाता इस हालत में हम न थे, उस मोहिनी ने मुझे मंत्र मुग्ध कर रखा

अँधेरा बंधन हैं

अँधेरा बंधन हैं, बेडियां हैं आदत पड़ गई जिन्हें अंधेरो की  वो अब भी हैं समझते  अँधेरा क्या हैं, बस एक ख़याल हैं  इस पल से उस पल में कितना अंतराल हैं  अँधेरा क्या हैं, एक सवाल हैं  : शशिप्रकाश सैनी //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Free ebook में उपलब्ध  Click Here //

अरे भोली जनता

जिनसे डर था, जो कुर्सी खिचता लगा  सत्ता हाथो से जाती दिखी शक्ल जिनकी डराती दिखी बाबा, मोदी सपनो में आएं नींदे उडाएं स्वामी जब बोले बस टेटुआ दबाएँ घिघी इनकी बंध गई  आंखे लाल साँसे चढ़ गई वोटर जब रूठता दिखा पापो का घड़ा फूटता दिखा सत्ता हाथो से फिसलने लगी आग ऐसी लगी जान जलने लगी हाथ के हथियार रामलीला में देर रात चले डंडे आजमाएं सारे हथकंडे एक दिन में 81 केस  बाबा ने किये फेस मोदी पे आरोप कई  मीडिया सब छोड़ दी मीडिया, सीबीआई सबने किया मुजरा  जब भी दिल्ली ने कहा जो कहते हैं आम हूँ मैं बिगडती व्यवस्था का समाधान हूँ मैं जब मेरी झाड़ू चलेगी गंदगी सारी मिटेगी  दिल्ली इस बयान पे न दहली बल्कि तारीफ़ की ईमानदारी इनके के खून में समाई ये आम अच्छा आदमी हैं भाई न आरोप न केस न सीबीआई अरे भोली जनता दिखा थोड़ी सी तो चतुराई ये वोट काटने की अंगड़ाई समझ, जितना झाड़ू चले उतनी हथेली मुस्काई झाड़ू से हाथ डरता  तो उसपे भी होती सीबीआई चाल तो देखो समझो जरा  झाड़ू ने रंगत हथेली से पाई अरे भोली जनता दिखा थोड़ी सी तो चतुराई

द्वन्द हैं लम्बी कहानी

Image
जाने कब से लड़ रही हैं भाग्य और मेहनत हमारी स्वप्न सच करने की बारी द्वन्द जाने कब से जारी जीत भ्रम है ये न पालो हर पल सय मात खेले  पग पग पे बाजी लड़ानी द्वन्द हैं लम्बी कहानी आज तुम छाती फुलाए आज तुम हुंकार पे हो कल को मैं भी सर उठाऊँ द्वन्द में अंतिम नहीं कुछ : शशिप्रकाश सैनी //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Free ebook में उपलब्ध  Click Here //

अच्छा चाय वाला लाना हैं

Image
दिल्ली की भट्टी सूनी टूट रही फूट रही धूल से जूझ रही नौ साल में मकड़ियों ने जाला कर दिया स्वर्णिम भारत का स्वप्न काला कर दिया कभी दूध में मिलावट कभी चीनी में गबन ग्राहकों से अनबन अच्छी भली दुकान पे ताला कर दिया स्वर्णिम भारत का स्वप्न काला कर दिया मालिक जनता ने नौकर गलत रखा स्वाद बेईमानी का चखा दिमक ऐसा लगा दिवाला कर दिया स्वर्णिम भारत का स्वप्न काला कर दिया अब की सही चाय वाला लाए जो दिमक न लगाए जिसे मालूम हो टूटी दुकान फिर से कैसे चलानी हैं एक अच्छी चाय में कितना लगता दूध, कितना लगता पानी है भट्टी को कितनी आंच पे लाना है पत्ती को कितना खौलाना है जिसे मतलब न हो ग्राहक पंडित है  या मौलाना है मकसद बस अच्छी चाय पिलाना है उसकी चाय से हौसला आए थकान जाए ऐसा चाय वाला लाना है जब भी चाय पीए ये याद रखे अब की कहा   बटन दबाना है हमें एक सच्चा अच्छा चाय वाला लाना है