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Showing posts from November, 2012

गधी भी न नसीब हमको

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एक ये जो रोज घोड़ी चढ़े एक हम की गधी भी न नसीब हमको वो गुड जैसे मक्खियां भिनभिनाती है और हम सच जो बोल गए कोई रखे भी ना करीब हमको मलाल दिल का मलालो में मलाल रहा कभी सुर्ख होठो पे कभी आँखों पे हुए फ़िदा पास जो गए थप्पड़ पड़ा और चेहरा लाल रहा मलाल दिल का मलालो में मलाल रहा हम सीधे कहे कोई बात बनाना न आए उसको घोड़ी चलाना आए हमको ना आए काम कोई बस दिल लगाना आए घोड़ी वालो का सवाल न लगाम न काठ न डोर कोई कैसे रखोगे काबू ये चिड़िया नहीं कमजोर कोई दिल की समझे दिल इसमें क्या जोर अजमाने को वो हो जाए हमारी हम उसके ना रहे कुछ हक जताने को : शशिप्रकाश सैनी  

मै फिर आऊंगा

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कभी कभी पुरानी तस्वीरों से धूल हटाता हूँ  बीती जिंदगी मैं फिर जीना चाहता हूँ, कैसे मैं बच्चा रहा  कैसे हुआ जवान, वो दादी की अठन्नियां वो नानी के पकवान. तब बड़प्पन की बीमारियाँ न थी  क्या खूब जिंदगी थी, किसी कोने में दबे रहने दो  ख्वाब मेरे  मैं फिर आऊंगा, जिंदगी जब  पड़ाव दर पड़ाव छुटने लगती है मैं लौटना चाहता हूँ  उसी कमरे में  समय जहाँ भागता नहीं. दीवार पे सीलन  जाले है मकड़ी के, किसको है फुर्सत  इस तरफ देखे. समझदारी की परत पे  एक छोटी सी सनक है, जो दुनिया के लिए बेकार है वो मेरी यादे है मेरा हक है. एक टोपी है छोटी सी रंग से भूरी है , मगर यादे सुनहरी है  पापा कलकत्ता से लाए थे. वो टोबो साईकिल  जो मेरा ट्रक्टर हुआ करती थी, ख्वाबो लगते थे पर आसमानों उड़ा करती थी . टुकड़ा टुकड़ा है पर मेरा खजाना है भरा धूल हटाने की देर है, मैं फिर रम जाऊंगा घंटो ख्वाबो में रहूँगा  वही धुन गुनगुनाऊँगा. : शशिप्रकाश सैनी  //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Free ebook में उपलब्ध  Click

कौन मनाता है त्यौहार तनहाई में

न अनार न फुलझड़ी न त्यौहार कुछ है न लड्डू न बर्फी न कपडों का उपहार कुछ है चंद नोटों से जुट जाता है सब कुछ दिये घी के रंगीन बत्तियो से पूरी दीवार सजा दू कपडे ले आऊ नये शोर गुल के हो जाऊ हवाले दिखावे के लिए मै भी त्यौहार मना लू दिवाली पटाके नहीं मिठाई नहीं न कपडों से न दियो से क्या कोई त्यौहार परिवार बिन है अपनों से मिलने की खुशी है पिता माँ बहन भाई में सारे त्यौहार इन्ही में कौन मनाता है त्यौहार तनहाई में मेरी भी जेब में पैसे है ए टी एम् है पिन है पर कोई त्यौहार क्या त्यौहार परिवार बिन है : शशिप्रकाश सैनी 

काशी ना छोड़ी जाए

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जितना जिए हम इसको उतना ये दिल में आए धड़कन में धड़के मेरे सांसो में ये घुल जाए काशी ना छोड़ी जाए घाटों की सुबह हो के बनके हवा के झोंकें हमने जी काशी देखी नैया के चप्पू हो के गंगा में डूबकी गोते तैरे जहां पे मन तो ठहरे वहाँ पे मन तो तुलसी पे तुलसी होना चेत कबूतर दाना लहरों की भाषा जानी मन के मुताबिक मैंने जम के जी काशी देखी दिन में था घाटो का मैं शामों गली का हो के स्वाद बटोरे कितनें चाट चटोरे कितनें एक ठंडाई गोली पूरी गले से होली रंगीन चस्का चख के काशी भरे हम इतनी काशी जिए हम इतनी जाए तो ले के जाए काशी ना छोड़ी जाए कविता डुबोई काशी शब्दों फिरोई काशी फोटो भी होई काशी पहर दो पहर ये क्या है हर पल बटोरी काशी काशी ना छोड़ी जाए जो जिले जरा सी उनसे तो ना छोड़ी जाए और जो तरबतर है काशी डूबें है काशी घुलें है उनसे कैसे छोड़ी जाए तन को है रोटी कपड़ा रोटी जहाँ ले जाए मन तो बसा है काशी काशी ना छोड़ी जाए : शशिप्रकाश सैनी //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Free ebook

पैसा जब से बाप हुआ है (The Banaras Series)

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कौन नज़र से कौन तके किस मन में क्या जानू मै सारा जग ही नया नया किस किस को पहचानू मै किस कंधे पे जाना किसको रखना दूर मुझे सारा चक्कर बड़ा भयंकर कुछ भी ना मालूम मुझे आँसू आए मै चिल्लाऊँ कर माँ से ना दूर मुझे टाफी बिस्किट जब दिख जाए पापा मुझकों पकड़ के रख मम्मी थोड़ा जकड़ के रख बड़े बडो का डोले मन मेरा भी तो जी ललचाएं मै बालक मै नादान सिक्को की जो खनक में डोले पैसा बोले वैसा बोले बिकने में अब शर्म नहीं है पैसा जब से बाप हुआ है मन में इनके पाप हुआ है माँ की गोदी नहीं सुहाती छोड़ माँ का हाथ चले लालच इनका बड़ा भयंकर टुकड़े टुकड़े कर दे ये मन में इनके पाप हुआ है पैसा जब से बाप हुआ है : शशिप्रकाश सैनी  //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Free ebook में उपलब्ध  Click Here //

धड़कने को कोई दिल्लगी दे दे

ये आग खाक करेगी ना पास लाओ इसे बस झुलसने का शौक़ मुझे ना जलाओ मुझे दर्द-ए-दिल किसी नशे से ना बहकने वाला चाहे एक घुट दो जाम पूरा मैखाना पीला दे जज्बाती आदमी हू इन्हीं जज्बातों का सिला है दिल जब भी धड़का इश्क-ए-गम मिला है जब वक्त लगाता मरहम होता है नशा कम खुदा धड़कने को कोई दिल्लगी दे दे नशा रख वही बस बोतल नयी दे दे दिन-ब-दिन पिए और दुनिया शराबी कहें इससें तो अच्छा दिल टूटे और दिल-ए-खराबी रहे : शशिप्रकाश सैनी