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Showing posts from May, 2012

कलुआ ले गया गाड़ी जी

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पेर्टोल पिगाया सारी जी कलुआ ले गया गाड़ी जी दिखने में कबाड़ी जी कलुआ ले गया गाड़ी जी पुणे में मौज मारी जी हम घुमे तो लोकल की सवारी जी कलुआ ले गया गाड़ी जी कलुआ कलह का कारण हुआ झगडालू रूप धारण हुआ आन का तेल आन की गाड़ी जी मुफ्त की करता सवारी जी हमने इच्छाए मारी जी कलुआ ले गया गाड़ी जी दिखने में कबाड़ी जी आन का सतुआ आन का घी हलुआ खाए काला जी साल से ज्यादा होगया न किया गाड़ी में सैर सपाटा पूछने पे कहा गयी गाड़ी पापा ने डाटा गाड़ी पे पडोसी का राज मम्मी हुई नाराज़ हम हो जाए लोकल वो सडको के   सरताज भाई बहना सब नाराज़ कलुआ ले गया गाड़ी जी दिखने में कबाड़ी जी इतना न अच्छे हो जाइये अपनों को ही दूर पाइये दूसरा की हो मौज घर को तरसाइए इतना न अच्छे हो जाइये कलुआ ले गया गाड़ी जी दिखने में कबाड़ी जी : शशिप्रकाश सैनी

नाता तोडना गुनाह नहीं

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Photo courtesy: Saishyam and Arun Photography साथी सफर के जब हमसफ़र ना हो पाए जब रहे हम हमराह नहीं रास्ता बचा कोई दूसरा नहीं नाता तोडना गुनाह नहीं जब मालूम ये पड़ जाए रिश्ता रहेगा पत्थर होगा देवता नहीं नाता तोडना गुनाह नहीं इंसान गलतियों का पुतला है कुछ तुमसे हुई कुछ हमने की जब और पटरी ना खाए दुनिया के लिए क्यों तमाशा हो जाए साथ तो छोडो पर दिल न तोड़ो दिल को करो ना बर्बाद दिल मिलेगा हमराही रहे इतना आबाद दिल गाठे खोलो ऐसे की कल को नज़र मिला पाए दोस्त रहे दुश्मन न होजाए ये ज़िंदगी के हिस्से है मिटा ना पाओगे किसी राह में टकराओगे मुस्कुराना मुश्किल ना होजाए उसे आसान रहने दो हाथ मिला पाए इतना मान रहने दो ऐ अतीत मेरे हम हमराही ना होपाए हमसफ़र ना होपाए तुम भी रहो इन्सान  हमे भी इन्सान रहने दो  ज़िंदगी आसान रहने दो :शशिप्रकाश सैनी

सागर निमंत्रण

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Photo courtesy: Akanksha Dureja कानो में सागर की जब भी आवाज़ आती थी लहरें गीत गाती थी जैसे हमको बुलाती थी पाबंदियां बेडियां कोलाहल शहर की शहर छोड़ आओ साथी को भी संग लाओ आओ आन्नदमय हो जाओ लोक लाज दुनिया की दुनिया को मुबारक न डरो न शरमाओ आन्नदमय हो जाओ सर पे जो भारी थी चिंता दुविधा जिम्मेदारी थी इसी तट पे दे मारी थी यही गठरी उतारी थी ढूढो रेत में सीपियाँ शंख ढूढो शंखनाद करो जीवन जीवन लगे ऐसा उन्माद करो डुबकियाँ लगाओ लहरों पे तैरो पिंजरे खोलो खुदको आजाद करो आज कुछ उन्माद करो शंख ढूढो शंखनाद करो जब प्रकृति देती हो निमंत्रण आज तो छोड़दो दिखावटीपन जब दिन के खेल से थक जाएंगे रेत बिस्तर हो जाएगी प्रकृति माँ रात चादर ओडाएगी : शशिप्रकाश सैनी

साल 1998

पहली बार छेड़ा था तार दिल का एक नज़र में ले गयी करार दिल का, दिल के सफ़र की सुहानी घड़ी थी इलाहाबाद चढ़ी थी सतना उतरी थी, पुरे सफर  में उसकी नज़र पे नज़र टिकी थी, 6 घंटे का सफ़र था पर यादो में सालो बसी थी, वो मेरी बचपन की दिल्लगी थी न नाम मालूम, न पते का पता मासूम था दिल उसकी आँखों में भी मासूमियत भरी थी,  तस्वीर धुंधली से हो गयी ओझल प्रेम था या आकर्षण जो भी था, था निश्छल :शशिप्रकाश सैनी //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Free ebook में उपलब्ध  Click Here //

भावनाओं का दर्पण है

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कोई तरकीब कोई तरीका कोई उदाहरण बताइए लोग पूछते है अपनी लेखनी का कारण बताइए कारण से भी लिखता हू लिखता हू अकारण भी जब भी मन ने कही कलम चल दी फूलो की महक पे चिड़ियों की चहक पे धन ताकत जब भी करे विवश सज्जनो का ना चले वश लिख देता हू आग की दहक पे जो भी सनका देती है इस कवी को लिख देता हू हर उस सनक पे माटी की खुशबू पे ज़िंदगी की जुस्तजू पे या दिल की आरजू पे जैसे साज़ के तार छेड दो तो वो तराने सुनाने लगती है वैसे ही ठंडी हवा के छुने पे मुझ में से कविता आने लगती है काव्य मेरे सुख का साथी है तो दुख का सहारा भी मुझे उचाईयों पे ले गया तो गर्क से उभारा भी जीतनी हिम्मत इन्होने दी उतनी कही से ना मिली पिता के आदर्श है माँ की लाड़ है बहन की राखी है बुजुर्गोँ की लाठी है ज़िंदगी भर की सीख है भावनाओं का दर्पण है ये कोई काव्य संग्रह नहीं ये तो मेरा मन है : शाशिप्रकाश सैनी               

मेरे किस्से के हिस्से है

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मेरे किस्से के हिस्से है ऐ दोस्त जो बिताई संग घडियां है वो ज़िंदगी की कड़ियाँ है दिल पे पहरा हो न हो दिल में जगह रखता हू ऐ दोस्त तेरी दोस्ती को जिंदा रखता हू यादो को जवा रखता हू जब भी सर झुकाता हू या मंदिर जाता हू तेरे लिए भी इल्तज़ा रखता हू तेरे हिस्से की दुआ रखता हू खुदा जो देता रहा मुश्किलें हरदम मेरा हौसला मेरी ताकत हो जाने वाले दोस्त भी उसने दिये साथ निभाने वाले : शशिप्रकाश सैनी

आग पेट्रोल में लगा के

मैडम जी १० जनपथ की राजशाही से बाहर आइए युवराज बिटिया दामाद को भी लाईए टूरिस्ट न बनाइए दो निवाले एक रात नहीं पूरा हफ्ता बिताइए चार पैसे पसीना बहा कमाइए १ लीटर पेट्रोल गाड़ी में डलवाइए क्या बचता है बताइए गर आपसे सरकारी ठाठ छीन ले राजवंश का राज छीन ले दिल्ली की गर्मी दे मुंबई की बरसात दे बनारस की धूल चेन्नई की उमस फिर जानियेगा आम आदमी कितना बेबस आटा दाल से उलझे या मुन्ना की फीस से सुलझे मन मार के जीता है खून खौल जाता है जब सरकारी मच्छर खून पीता है 3 जी 2 जी देश का है धन जानता का है उन्ही से बतमीजी अब कोयला भी खाइयेगा जी ये भी खूब चाल तेल की खुद बडाईयेगा आग पेट्रोल में लगा के गुहार अपनी ही कटपुतली से लगाइयेगा गरीब के दर्द पे घड़ियाली आसू बहाइएगा : शशिप्रकाश सैनी

न डालो पांचो उंगलिया घी में

न डालो पांचो उंगलिया घी में जब खुलेगी पोल सब डाल देंगी तुम्हे नदी में न डालो पांचो उंगलिया घी में जब उबलेंगी  तो उबल जाओगे उन्हीं में खुशी हो जाएगी खुदखुशी में न डालो पांचो उंगलिया घी में दिल खिलौना, प्यार खिलवाड़ नहीं है आज जीते हो, कल हारोगे इसी में न डालो पांचो उंगलिया घी में जिंदगी सबकी इन्साफ करती है स्वर्ग नर्क होता नहीं कुछ जमीं हिसाब करती है कांटे बोओगे तो कांटे ही मिलेंगे वापसी में न डालो पांचो उंगलिया घी में कोई रोए तो हँसो ना इतना उड़ो ना कल तुम्हारी सिसकिया दब न जाए हँसी में न डालो पांचो उंगलिया घी में आज घी में हो कल कढाई में होगे ज़िंदगी आग देगी जल जाओगे इन्ही में न डालो पांचो उंगलिया घी में गर जानना है क्या मजा है आशिकी में एक से दिल लगाइए खो जाईए उसी में न डालो पांचो उंगलिया घी में : शशिप्रकाश सैनी  //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Free ebook में उपलब्ध  Click Here //

इन्तेहान लेता रहेगा वो

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photo courtesy : Saishyam and Arun Photography मुराद एक बार में देगा नहीं वो  इन्तेहान लेता रहेगा वो  सब्र रखो की बरसात होगी  आज वीरान है कल आबाद होगी  मुश्किलात से डरना न बिखरना कभी  वो बदलता रहता है रंग-ए-ज़िंदगी  ख्वाब देखा है तो हौसला रखो  इन्तेहान लेता रहेगा वो दिल की सुनो दिल की करो  तुफानो से मत डरो पर है उड़ने के लिए उड़ो तुफानो से डर घुटनों के बल ना चलो  सपनो को आजाद रहने दो इन्तेहान लेता रहेगा वो  : शशिप्रकाश सैनी 

ऐ सफर हम, हमसफ़र हो ना पाएंगे

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न बहलाना, न फुसलाना न ख्वाब सुहाने दिखलाना, न बंधन बेडी न पिजरा सोने का लाना, ऐ सफर हम हमसफ़र हो ना पाएंगे एक दिन लौट के घर जाएंगे छोड़ के दुनिया तेरी अपने शहर जाएंगे. न मुझको चाहे ताजमहल न नोटों का कोई राजमहल, मेरा दो बीएचके   भारी है बचपन से उससे यारी है . न किस्मत का पकवान मुझे न धन ऐसा, न कर ऐसा धनवान मुझे जो कर दे न वीरान मुझे. पापा मम्मी भाई बहना है जीवन का सारा गहना है दूर नहीं मुझको रहना, सुख देता तो सुख भोगूं गर दर्द मिले तो संग सहना. स्कूल मेरा अलबेला था जिन मैदानों में खेला था, तेरे कॉन्वेंट तेरे बोर्डिंग रख सारे अपने होर्डिंग, मेरी औलादे भी खेलेंगी जिस माटी में मैं खेला था. अपनों में रहने का आदि गैरो में मुझको डाल नहीं, थोड़ा शहर मुझमे भी था जाने का गम उसे भी था. तस्वीरो से आबाद रखता हूँ घर लौटना है, ये याद रखता हूँ, मजबूरीयों का शिकार आदमी तो हूँ पर इच्छाओं को आज़ाद रखता हूँ किस ओर है शहर मेरा, ये याद रखता हूँ. : शशिप्रकाश सैनी  //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Fr

मानसून दिल का

(ये कविता मैंने  2001  में लिखी थी ) तुम जमकर बरसों ऐसी भी मेरी फरमाईस नहीं है बस दो बूंद प्यार की गिराती जाओ तुने सताया हैं बरसो तक अब तो लम्हे इतंजार घटाती जाओ वह तो भिगोता है तन को रह-रह के बस मन को तुम भिगोती जाओ  मेरे प्यार की तृष्णा बुझाती जाओ सर से पैर तक तरबतर हूँ फिर भी दिल में है कि सूखा पड़ा है याद आती है आंधीयाँ बन कर घिरा हूँ समुन्दर से फिर भी प्यासा हूँ हूँ साहिल पे लकिन डूबता हूँ अब बरसों तब बरसों लेकिन देर न कर धमकियां देने की मेरी आदत नहीं मानसून साल दर साल आता है दुनिया रंग बदलती है लोगो का दिल बदल जाता है : शाशिप्रकाश सैनी

ये गाँधी क्यों है

( ये मेरी एक पुरानी कविता है मैंने इसमें कुछ परिवर्तन किया है वर्तमान मुद्दे पे ) क्या ये कभी    नंगे पाँव धरा पे चला होगा क्या धूप में    इसका भी पसीना बहा होगा क्या बारिश में    ये कभी भीगा होगा क्या ये कभी   गैरो के गम में रोया है क्या ये   बिना बिस्तर सोया है क्या ये उस महात्मा की ज़िंदगी का    एक टुकड़ा भी जिया है तो ये काहे का गाँधी   ये गाँधी क्यों है बिना मातृत्व की छाव के बिना खानदानी नाव के क्या ये पानी में उतरा है तो क्यों ये २५वे वसंत में ही प्रधानमंत्री बनने का दम भरता है आज नहीं हरदम भरता है ये गाँधी क्यों है ये बस उसकी बात नहीं यहाँ बाज़ार है लगा हुआ कोई गाँधी बेचता है तो यादव से माधव तक सब मिलेगा कोई करुना का सागर बन निधि इतनी जमाली है की ३ जी है आदर्श सब बिकाऊ है इनके घरों में सब कमाऊ है अगर ये बाज़ार है   तो ये सब बाजारू है सांसे गिनती में हमे बराबर मिली संविधान में हमारी भी उतनी ही जगह जीतनी इनकी त

marketing shayari

दिल की postioning और प्यार का segmentation सालो पहले टूटा था दिल उसका है ये frustration इश्क कारोबार है यहाँ लगता है business to business relation तब से हमने छोड़ दी straight rebuy की policy न हीर है न कोई राँझा हर चेहरे पे mask है ज़िंदगी रोज एक new task है : शशिप्रकाश सैनी

जब भी आया आड़े आया

हाथों की लकीरों से खेल रहा माथे से भी किस्मत जिसको कहते हो  जब भी आया आड़े आया  न दफ्न अरमा न दफ्न सांसे  न दफ्न मुझको ही कर पाया  : शशिप्रकाश सैनी 

इन्टरनेट मोबाइल पे फन है

इन्टरनेट मोबाइल पे फन है जैसे की बचपन है कि मैं अब भी दरवाजे खटखटा सकता हूँ चिल्ला सकता हूँ दोस्तों को बुला सकता हूँ बंदिशें दूरियां सब बेमानी हैं अब मन की मनमानी है मैं देख सकता हूँ तुम्हें  खुद को जता सकता हूँ क्या सोचता क्या समझता हूँ इस बेतार के तार पे बता सकता हूँ दरवाजे खटखटा सकता हूँ अपनी आजादी हाथ लिए चलता हूँ तड़पता हूँ, मचलता हूँ, बिखरता हूँ, संभलता हूँ कोई दीवार आड़े आती नहीं जब जी करता है यारों से मिलता हूँ उनकी सुनता हूँ अपनी सुनता हूँ हैं दूरियां बहुत पर जब भी ओनलाइन आता हूँ दूरियां मिटाता हूँ कविता सुनाता हूँ गप्पे लड़ाता हूँ मन बहलाता हूँ, दिल लगता हूँ क्या बताऊ क्या क्या करता हूँ ये जो बेतार का तार है ज़िंदगी की पतवार है यारो से मिलाता ये इन्टरनेट भी यार है : शशिप्रकाश सैनी  This is my entry to the ‘Internet is Fun’ Contest on  IndiBlogger . 

मै बचपन जैसा हू

मै खेलूंगा पानी से भी मै आग लगाऊंगा मुझे बाकी अब भी बच्चा कुछ भी कर जाऊंगा न दीवारों से डरता मै न तलवारो से डर दीवारे लाघुन्गा मै भाग भी जाऊंगा मटमैला मै मै मटमैला हू कपडों से कीचड़ से न डरता हू न बारिश से न धूल की फिकर न धूप से ही डर चमड़ी मेरी मोटी न करता कुछ असर डरता ना डरता ना ना कोई फिकर दिल  से अब भी बच्चा हू क्या होता है डर सब्र नहीं बेसब्र हू मै सच्चा हू मगर दिल में जो चेहरे पे वो बाते मेरी सीधी है न टेड़ी है नज़र एक ही मेरी रंगत है एक ही सूरत है सब अपनी अपनी करते मै हम में जीता हू दोस्त मेरे बच्चे जैसे मै बचपन जैसा हू : शशिप्रकाश सैनी