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Showing posts from 2011

अपनी गलतियों का भोझ आप ही ढोता हूँ

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अपनी गलतियों का भोझ आप ही ढोता हूँ गंगा खुद मैली हैं मै वहा पाप नही धोता हूँ पाप धोने के लिए बहोत हैं आंख के आँसू रात रो अंतर्मन पश्चाताप से ही भिगोता हूँ हम इंसानों ने कर दी गंगा इतनी मैली की गंगा माँ विलाप रही मै भी रोता हूँ एक दिन रूठ के चली जाएगी गंगा अनर्थ का बीज कुछ तुम बोते हो कुछ मै बोता हूँ सिर्फ लिखता हैं कुछ करता नहीं "सैनी" जहा माँ डूबती हैं मै स्याही में बस कलम डूबोता हूँ : शशिप्रकाश सैनी © 2011 shashiprakash saini,. all rights reserved

अंदाज़ हैं ऐसा दिलवाला बच के किधर जाएगा

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अंदाज़ हैं ऐसा दिलवाला बच के किधर जाएगा घड़िया धीमे हो गयी लगता हैं समय ठहर जाएगा अगर तेरी तस्वीर कोई ले गया मैखाने में कभी नशा बोतलों में भरा हैं जो सारा उतर जाएगा नज़रो में हैं जादू भरा या हो कोई अप्सरा देखने वालो पे तिलिष्म असर कर जाएगा ये जलजला हैं कोई जैसे हुस्न-ए-अदा का मजबूत दिल बचेंगे कमज़ोर दिल बिखर जाएगा तस्वीर खीचने वाला खुशकिस्मत हैं बड़ा "सैनी" होती हैं जलन तस्वीरे बटोर के सारी घर जाएगा : शशिप्रकाश सैनी © 2011 shashiprakash saini,. all rights reserved

ये ख़ासियत रही उस मुलाक़ात की

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ये ख़ासियत रही उस मुलाक़ात की जुबा कुछ कह न सकी आँखों ने सब बात की ये दुनिया हैं सब पैसे से चलते हैं खबर लेता नहीं कोई बिगड़े हालात की जो करते हैं लड़कियों पे छीटा-कसी न जाने किस घर के हैं उपज हैं किस ख़यालात की हमसे रूठी हैं यूँ बात भी करती नहीं नाराज़गी हैं न जाने किस रात की किस गम में भीगी हैं छत की सीढ़ियां " सैनी"  किसके जज़्बात छलके किस आंख ने इतनी बरसात की : शशिप्रकाश सैनी © 2011 shashiprakash saini,. all rights reserved

मैं चलने के लिए बना था मैं उड़ न सका

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Photo Courtesy: Saishyam and Arun Photography रुकना साँस लेना मेरी ज़रूरत थी जब भी मैं रुका दुनिया ने कह दिया, मैं पीछें रह गया मैं चलने के लिए बना था वो कहते रहे, मैं उड़ न सका विचार बीज थे मैं मिट्टी था दुनिया से अलग सोचता मैं मिट्टी था बारिश की बूदों पड़े तो मैं खुशबू सूरज की रोशनी में जादू कि विचारों में जिंदगी भर दू उपजाऊ था पर था तो मैं मिट्टी ही कइयों ने समझाया सोना होना ज़रुरी है मिट्टी का नहीं है मोल सोना है अनमोल मुझें खलिहानों में होना था बारिश धुप में भिगोना था पर भट्टी में जलाया गया मुझें कि लोगो की चाह में सोना था पर मैं तो मिट्टी था मुझें मिट्टी ही होना था मैं चलने के लिए बना था मैं उड़ न सका क्या सोना होना इतना ज़रुरी है क्या सोना फसल बनेगा क्या सोना पेट भरेगा क्या सोना आसमान से बरसेगा और बीजो में जीवन भरेगा सोना कीमती है पर मैं भी हूँ अनमोल पर मुझें इतना तपाया गया कि मैं मिट्टी भी न रह सका विचार मेरे जल गए नसों में लड़ने की कूबत थी सब भाप बन निकल गए मैं चलने के लिए बना

एक मुट्ठी रेत की

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Saishyam and Arun Photography जमीं अब सरहदों में है आसमां मेरी हदों में है नदिया बांध सकता हूँ मैं  चाँद कदमो में है जो तुने बनाई थी दुनिया  आज मैंने जीत ली  मौत इशारे पे मेरे  पैरों में मेरे जिंदगी  खुदा होने लगा हूँ  बंदे करेंगे बंदगी  एक हाथ रखता हूँ मौत  दूजे में भरी है जिंदगी  रातो को दिन किया मैंने  इतनी भरी है रोशनी  बाटता हूँ गम  बाटता हूँ  खुशी  खुदा होने लगा हूँ  बंदे करेंगे बंदगी  मेरे अहंकार पे  बस उसने यही भेट दी एक मुट्ठी रेत की  मेरी तरफ फेंक दी कहा उसने  बांधलो इसे चल दो अभी गर एक चुटकी रेत भी  रास्ते में ना गिरे खुदा मैं भी कहूँगा  और मैं भी करूँगा बंदगी  शहर जीते थे मैंने जीते थे घर कई  पर एक मुट्ठी रेत भी मेरे हाथो में ना रह सकी  खुदा होने की जिद  उसने कइयों की दफ्न की एक मुट्ठी रेत की  मेरे अहं पे डाल दी  गलतियों की सजा बराबर है दी जिसने भी खुदा होने की हिमाकत की उनकी कब्रों पे चड़ाता नहीं कोई  एक मुट्ठी रेत भी  : शशिप्रकाश सैनी //मेरा पहला काव्य संग्र

कोयले से हिरा होना चाहता हूँ

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कोयले से हीरे होने की जलन ढूढ़ता हूँ दर्द ढूढ़ता हूँ चुभन ढूढ़ता हूँ काली घनी रात  जब हाथ को ना दिखे हाथ  मै चूल्हें टटोलता हूँ शोले दामन पे उड़ेलता हूँ हर रात जिंदगी जलाता हूँ की मै कोयले से हिरा  होना चाहता हूँ जो लकीरे पाप की  मेरे हाथो से मिटा दे अंगारा ऐसा हो  जो हाथ के साथ  लकीरे जला दे  कालिख की लकीरे धोना चाहता हूँ फिर से हिरा होना चाहता हूँ कालिख अपने साथ लिए चलता हूँ कोयला हूँ बस कालिख मलता हूँ दिल तोड़े हैं दिल जलाए हैं खंजर बेवफ़ाई की कई अरमानो पे चलाए हैं की अब जो छुएगा अपनाएगा  साथ घर ले जाएगा बस कालिख पाएगा  कोयला हूँ पश्च्याताप मांगता हूँ मुझे बना दे हिरा  वो आग मांगता हूँ दर्द चुभन मांगता हूँ जलन मांगता हूँ अब पापों का पतन मांगता हूँ जो बना दे इस कोयले को हिरा वो जतन मांगता हूँ : शशिप्रकाश सैनी  © 2011 shashiprakash saini,. all rights reserved

रंग-ए-मोहब्बत

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सुबह की धुप हैं या पहली बरसात हैं मोहब्बत भी वही बात हैं आभास हैं की दिल के पास हैं पर एक दिन बादल आगे निकल जाएगा आज बरसा हैं कल कही और बरस जाएगा मोहब्बत हैं तो हैं पर ये जिंदगी नहीं हैं जिंदगी बिना इसके भी कट जाएगी कईयो की निपटी हैं हमारी भी निपट जाएगी फिर वही सुबह होगी फिर गुल खिलेंगे वो दुनिया नहीं हैं मेरे लिए की वो नहीं होगी तो दुनिया ही मिट जाएगी सासों की डोर तेरे पास नहीं हैं तू जमीं नहीं हैं मेरी तू मेरा आकाश नहीं हैं आंखे खुली तो ये सुनता रहा हर गुल के लिए बना हैं भवंरा पंखो को जोरो से फडफडाना हैं की गुल ढूँढना हैं गुलिस्ता बसाना हैं आग दे या पराग दे या की जलता चिराग दे किसी की आग मिटना हैं किसी के रंग मिलना हैं प्रीत रीत दुनिया की हमे यही गीत गाना हैं हैं भीड़ बहोत पर किसी को तो अपनाना हैं मोहब्बत चलन दुनिया का हमें ये चलन निभाना हैं मोहब्बत की ताकत इतनी की दुनिया बदल जाती हैं जहर काम ना आता मीरा मौत के चंगुल से निकल जाती हैं जब दर्द हो जाता हैं साँझा कोई हीर होता हैं कोई होता हैं राँझा यु रह

अंधेरा हैं कितना

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रातो के हो गए हैं पुजारी की दिन की खबर नहीं हैं पैसो की हैं ये दुनिया मेरा ये शहर नहीं हैं दिन में भी ये जलाते हैं बत्तियाँ इतना ना जाने यहाँ अंधेरा हैं कितना आदमी अपने साये पे भी शक करता हैं हाथ हाथ मिलाने से डरता हैं पैसो से हर चीज तोलने लगा हूँ की मै भी पैसो की जुबाँ बोलने लगा हूँ नीद बेचता हूँ बेचता हूँ सांसे भी बेचे हैं त्यौहार बेचीं हैं उदासी भी हंसी बेचीं हैं आसू भी एक दिन बिक रही थी जिंदगी और मैंने बेच दी हर चीज का हैं दाम  दोस्ती बिकती हैं हो जाती हैं मोहब्बत भी नीलाम पैसो के दम रिश्ते हैं पैसो के दम मकान  पर कोई घर नहीं हैं क्यूकी ये मेरा शहर नहीं हैं जहा चाय की दुकान और वाडापाँव की गाड़ी थी मौसी से अन्ना तक सबसे पहचान हमारी थी उन्मुक्त परिंदा था सुबह का बाशिंदा था सूरज की सरपरस्ती में जिए  अपने पंखो को हवा दी खूब उड़े साँस फुली  मगर हौसला टुटा नहीं इन दीवारों में किसे अपना कहे जो पैसो से परे चाहे हमे  दोस्ती जहा मतलबी ना हो  हम बाज़ार में इतना रहे  की रिश्ते बाजारू हो गए अब किसे अपना कहे 

खुद अपनी किस्मते बनाई हैं

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सब कुछ माथे की लकीरों में नहीं हैं छुपा  कुछ तो किस्मत हमने भी बनाई हैं कभी पनपते सपनो को भट्टियो में झोखा हैं कभी बुझती लौ के लिए आंधियों से जान लड़ाई हैं कुछ तो किस्मत हमने भी बनाई हैं जब अंधकार था धुत्कार थी  जब हमसे रूठा संसार था  अपने हौसलों पे जिंदगी जी हैं जंगे अपनी अपने दम लड़ी हैं इस तरह थे लड़े  फिर ना ढलान थे ना चढाईयां थी हौसलों से पाटी थी जमीं फिर ना बची कोई खाईयां थी  ये हौसला पैदाइशी हमारे लहू में आया हैं कंकडो को पैरों तले दबाया हैं कटीली झाडियों से रास्ता बनाया हैं किस्मत बनाने के लिए इतना हैं लड़े  की हमने जिंदगी जलाई हैं तिनका तिनका ही सही  पर हमने खुद अपनी किस्मते बनाई हैं : शशिप्रकाश सैनी © 2011 shashiprakash saini,. all rights reserved

अकेले हम चले कितना

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अंतरा : हसीं चेहरे हैं इतने की हसीं पूरा जमाना हैं बहोत सुनी हैं हम ने मोहब्बत की दास्ताँ किसी से दिल लगाना हैं किसी से दिल मिलाना हैं सुना था बिना प्यार जिंदगी अधूरी हैं इसलिए प्यार करना ज़रुरी हैं किसी गैर को इस तरह अपना बनाना हैं जिंदगी हैं सफर और हमे पूरा सफर बिताना हैं बचपन से यौवन का सफर किया अकेले उसके साथ बुढ़ापे तक जाना हैं उसके साथ जीना हैं उसके साथ मर जाना हैं की बस चंद सासों का ठिकाना हैं बाहों में बाहे डाल ये सफर बिताना हैं मुखड़ा : किसी का हो जाना था किसी से दिल लगाना था बाहों में किसी के खोजना था लंबा था सफर इतना अकेले हम चले कितना राह के रहगुज़र थे हमे भी साथी बनाना था : शशिप्रकाश सैनी © 2011 shashiprakash saini,. all rights reserved

इश्क हैं ज़रा सा

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ये दिल भी हैं धडकता आंखे भी हैं फड़कती सर पे तेरा नशा हैं चढ़ा सा की इश्क हैं ज़रा सा इश्क की बदली हैं छाई की एक गई तो दुझी आई ढूढने से भी ना मिलेगी मेरे दामन में तन्हाई की ऊपरवाले ने इस तरह से मोहब्बत बरसाई की हो गयी मोहब्बत मेरी परछाई की साया लगता हैं मुझे बदला सा की मुझे इश्क हैं ज़रा सा जो दिल से मिला हो गये उसके न जात देखी न धर्म बाहों में खो गये उसके हाथ पकडे हैं हाथ मोडे गालो पे कईयों के हमने भी निशा छोडे रीत जिंदगी की रीत ये बनाई प्रीत हवाओ में हमने फैलाई जो मीत मिला मनमीत हो गया होठो पे थिरकता गीत हो गया जिंदगी की बस ये कमाई हैं की उसने दी हैं और हमने मोहब्बत बरसाई हैं दिलो में कईयों के हम ने जगह बनाई हैं रगों में नशा इश्क का इस तरह भरा सा की कई बार किया हैं हमने इश्क ज़रा सा : शशिप्रकाश सैनी © 2011 shashiprakash saini,. all rights reserved

I m just a thought

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I can be a window Or a crow Whatever I thought I can be a lot This not my pitch But game is still same Words are my tools I m players without rules I just give them form And there is no norm I can swim I can dance I can play with every glance Language is no bar I will come my love Wherever you are I can play with yours You play with mine If you think I m a poet Then I m not I m just a thought This is my vocab That’s all I got I m stone you can throw A ballon you can blow I am just a feeling Which makes your face glow I m just a thought May be I m nice May be I m not : Shashiprakash saini © 2011 shashiprakash saini,. all rights reserved

दीवारे

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ईट दर ईट हम दीवार बना रहे हैं हिफाज़त की कीमत आजादी से चूका रहे हैं कांच के टुकडो और कटीली तारो से घर सजा रहे हैं ईट दर ईट हम दीवार बड़ा रहे हैं रोशनदान छोटे हो गये हैं खिडकियों पे जालियां हैं फिर भी जरा सी सरसराहट से डर जाता हैं आज क्यों आदमी आदमी से मिलने में खौफ खाता हैं खुली हवाओ में रहने से वो इतन खौफ़जदा हैं की आज दीवारों का कद हम से भी ज्यादा हैं एक हल्की सी दरार भी इसे डरा देती हैं आखिर एक दिन दरारे ही दीवार गिरा देती हैं गर खतरा अंदर होगा ये नहीं झुकेंगी और आप दीवारें लांघ नहीं पाएंगे गर जिंदगी दीवारों में जियेंगें तो एक दिन दीवारों में मर जाएंगे जरा सी बात अब लोगो को बरदास्त नहीं सालो के रिश्तों पे ये ईट गिरा देता हैं दिल के करता हैं टुकड़े और दीवारे उठा देता हैं जहाँ भी जाता हैं बस दीवारे बना देता हैं बडों की गलतियों की सजा रिंकू क्यों पाता हैं दीवार पार का टिंकू अब खेलने नहीं आता हैं बड्डपन की दीवारों में बचपन बट जाता हैं बड़प्पन बस दीवारे उठाता हैं : शशिप्रकाश सैनी © 2011 shashiprakash sa

आओ दिवाली मनाओ

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खत्म करो वनवास और घर आ जाओ गर रूठे हो अपनों से आज गले लगाओ खुशी के दिये जलो रंगीन बत्तीयों से घर सजाओ आओ दिवाली मनाओ वनवास खत्म करो वापस आजाओ श्री राम की भांति बनो तो घर अयोध्या गर घर अयोध्या तो शहर अयोध्या चमक धमक तो ठीक हैं गर श्री राम के कुछ संस्कार अपनाओ दीप मन का जलेगा तन प्रकाशित हो जायेगा ये संस्कार लाओगे और वाणी को शीतल बनाओगे तो हर भ्राता में भरत लक्षमण पाओगे : शशिप्रकाश सैनी © 2011 shashiprakash saini,. all rights reserved

आरूश

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सदियों का अंधेरा  अब हैं छट रहा  सूरज की किरण हैं हैं आरूश जग रहा  उसके हैं सब बच्चे  क्यों हैं लड़ते  किस ने की हैं ये दीवारे खड़ी हैं ये किसकी गलती  अपनी हैं लकीरे  ये अपनी गलती  अपने ही जब बच्चे  आपस में मरे  किस बाप को ये अच्छा लगे  एक का करे शोषण दूसरा  तो रोता हैं वो भी  तब आंखे हैं बरसे  बरसे आस्मां सदियों का अंधेरा  अब हैं छट रहा  सूरज की किरण हैं हैं आरूश जग रहा  कंधे एक से हैं सूरत एक सी सड़के हैं समतल  हैं गढे नहीं पूरी अब जमीं हैं  हैं पूरा आस्मां तेरे दिल में मेरी भी जगह  तू भी मेरे दिल में बसता  तू भाई हैं मेरा मै भाई तेरा  सदियों का अंधेरा  अब हैं छट रहा  सूरज की किरण हैं हैं आरूश जग रहा  ठंडी हैं पवन  बैहतर हैं सतह  अपने हैं पर्वत  अपनी नदिया  आ तैर के देखते  हैं जाते कहा  सूरज की किरणे लाती रौशनी  आरूश जग चूका  अब अंधेरा नहीं  सदियों का अंधेरा  अब हैं छट रहा  : शशिप्रकाश सैनी  © 2011 shashiprakash saini,. all rights reserved

हूँ दिया

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हूँ  दिया की मै दुनिया को उजाला देता रात भर जलता सवेरे को सहारा देता औरो के लिए खुद को जला देता रोशनी मेरा धर्म अंधेरे से लड़ना कर्म जब भी हो ज़रूरत कतरा कतरा मै जला देता हूँ दिया की मै दुनिया को उजाला देता सपनो को हवा देता हौसले बढ़ा देता और फासले घटा देता जो चहक जगाता जो महक पास लाता उन आशियानों को बस छुने भर से हूँ जला देता की दिया हूँ दुनिया को मै उजाला देता और घर अपना खुद ही जला देता अरमा उम्मीदे और प्यार सब मेरे लिए पाप हैं दिया होने का यही अभिशाप हैं मोहब्बत को पर तो लगता पर पास आ जाये तो झुलसता आखिर उनको भी राख हूँ मै बनाता की दिया हूँ दुनिया को मै उजाला देता दिया हूँ भुझने पे सिर्फ धुआ देता और रोशनी को दुआ देता जब सूरज छुप जाएगा फिर कोई दिया आएगा खुद जलेगा और दुनिया को उजाला देगा की दिया हूँ दुनिया को मै उजाला देता : शशिप्रकाश सैनी © 2011 shashiprakash saini,. all rights reserved

ये जिंदगी है क्या

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जब पैसो के पहाड़ ही दिखे  फूल की घाटियां न दिखे अब नहीं मै तितलिया ढूढता ये जिंदगी हैं क्या मै खुद से पूछता  ये जिंदगी हैं क्या बस दिन भर दौड़ता  हूँ तन से मै थका  मन भी हैं थका  बन गया हूँ मै धोबी का गधा  ये जिंदगी हैं क्या मै खुद से पूछता  ये जिंदगी हैं क्या किसी भी फल पे नहीं लगाता निशाना  सब पैसो से तोलता  रिश्तों में भी नफा नुकशा ही देखता  ये जिंदगी हैं क्या मै खुद से पूछता  ये जिंदगी हैं क्या College canteen  में भुखड़ था बड़ा  प्लेटो पे था मै टुटता  अब 5 star की seat और खाली हैं जगह  ऐ दोस्त आ के बैठा जा  ये जिंदगी हैं क्या मै खुद से पूछता ये जिंदगी हैं क्या किस्मत बनाने के लिए  मै इतना भागा प्यार रूठा हैं पड़ा  घर पीछे रह गया  ये जिंदगी हैं क्या मै खुद से पूछता  ये जिंदगी हैं क्या : शशिप्रकाश सैनी //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Free ebook में उपलब्ध  Click Here //

दुआ लाया हूँ

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तोहफे नहीं लाया हूँ मै बस दुआ लाया हूँ कड़कती धुप में बचा सके ऐसी बदलियाँ लाया हूँ अगर राह के कंकड न हटा सकू चलेंगे नंगे पैर की मै अपने चप्पल छुपा आया हूँ जाम कोई भी मेरे लबो पे आता नहीं कभी पर मै तेरे लिए जिंदगी का नशा लाया हूँ मै कवी हूँ कोई महल नहीं ला सकता हूँ खुशी मै सिर्फ शब्दों में जता सकता हूँ स्कूल की दीवारे लान्गते कलंदर थे सिनेमा की सीटों के जब सिकंदर थे मै उन दिनो की सदा लाया हूँ तोहफे नहीं लाया हूँ मै बस दुआ लाया हूँ : शशिप्रकाश सैनी © 2011 shashiprakash saini,. all rights reserved

भट्टी चढ़ा रक्खी हैं

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Photo Courtesy: Saishyam and Arun Photography सबने जिंदगी की आग पे भट्टी चढ़ा रक्खी हैं कोई पकाता हैं सपने किसी ने जिंदगी अपनी जला रक्खी हैं चाहे पत्थर हो तोड़ता या कोडिंग का निशाचर यहाँ सब हैं कलंदर सब ने अपनी लकड़िया जामा राखी हैं जिंदगी की आग पे भट्टी चढ़ा रक्खी हैं बचाता रहता हैं भट्टी को हवाओ से अधपकी खिचड़ीया किसे अच्छी लगती हैं जिंदगी की आग पे भट्टी चढ़ा रक्खी हैं कंधो पे भार घर का दिल पे मोहब्बत का क़र्ज़ हर फ़र्ज़ निभाने के लिए जिंदगी अपनी जला रक्खी हैं जिंदगी की आग पे भट्टी चढ़ा रक्खी हैं एक दिन तो अपने लिए बना ले कुछ थोड़ी चढ़ा ले कुछ थोड़ी आग कम ही रहने दे थोड़ा मुस्कुरा ले कुछ एड़िया रगड कोडिंग कर या जमीं को समंदर करके जहाँ से मिले वो लकड़ियाँ उठा लेता हैं फिर जिंदगी जलाता हैं और भट्टी चढ़ा देता हैं : शशिप्रकाश सैनी //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Free ebook में उपलब्ध  Click Here //

जीना चाहते है फिर से बचपन की तरह

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हम से अब नहीं मिलता वो बचपन की तरह इतने बड़े जो हो गए हैं हम भी रूठे रहते हैं उससे बड़प्पन की तरह एक जमाना था उसका दर था हमारे घर के आगन की तरह जिन ईटो पे बैठ बाते किया करते थे वो ईटे जाने कब हमारे दरमियान दीवार हो गयी अब रोकती हैं हमे बंधन की तरह जानते हैं तुम भी मिलना चाहते हो हम भी आना चाहते हैं फिर भी तने हैं हम अकड़ी गर्दन की तरह कोई चीज़ तेरी मेरी न थी सब हमारी थी आज यूँ हैं की खुशी क्या गम में भी दूर रखते हो हमे दुश्मन की तरह बहुत जी लिए हम बड़े हो के बड़प्पन की तरह कोई लौटा दे हमारे दोस्त की हम हँसना और जीना चाहते हैं फिर से बचपन की तरह : शशिप्रकाश सैनी © 2011 shashiprakash saini,. all rights reserved