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रिश्ते मर गए

 ननिहाल है किस हाल है  किसको बताए हम  पीपल उखड़ गया  पत्ते झड़ गए  कहाँ यादे बसाए हम कौन रहता साथ हरदम रिश्तों की गिनती है कम कम  वक्त के आगे  सभी सब हार जाते हैं  हैं यहां किसको पता  किस पार जाते हैं  घर भी अपना घर नहीं है  सब यहाँ ईंटे गिराते हैं  बाप ने जो घर बनाया  वहीं दीवारें उठाते हैं  पुश्तों की धरती पे हम ऐसे बिखर गए  लोग कैसे क्या हुए  रिश्ते ही मर गए  आम को जड़ से उखाड़  अमरूद को हिस्सों में डाला  बट गई बचपन की यारी  बट गई यादें हैं सारी मतलब के रिश्तों के आगे दिन बदल गए  काम जब सारा निकल गया तो दिल बदल गए  @kavishashi26

छठ पर जाएंगे घर

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कभी देश में परदेश में चाहे हो कौनों भेष में  कहीं गाड़ियों में चल रहा  या उम्र भर पैदल रहा    सब साल भर की छुट्टियाँ  वो मोतियों सी सहेजता  कोई पूछ ले अगर उसे  इस दौलत का करोगे क्या? बड़ी मासूमियत से कहता  छठ पर जाएँगे घर भियाँ!   कोई confirm पे चढ़ा हुआ  कहीं RAC पे लगा हुआ  कभी किसी कोने पड़ा हुआ  यहाँ आँखों में जगता सूर्य है  नदी का किनारा सज़ा हुआ  मंद मंद मुस्कानों से  सारा चेहरा भरा हुआ    वो निर्जला माँ की आस है  पूरे गाँव घर का विश्वास है  पिता के कंधों से कंधा मिलाएगा  नहाय खाय से पहले ही  मेरा लल्ला घर आएगा      घर तैयारियों में लगा हुआ  सारी रात रात जगा हुआ  यादों का भी झरना हुआ  जब घर में खरना हुआ  सब बैठे हैं मीठी भात खाने को  मन में नयी यादें बसाने को      साँसों में हलचल लिए  गन्ना फल नारियल लिए वो गंगा जी तक जा रहा  माँ का दौऊरा उठा रहा    ये ऐसी संस्कृति ऐसी सभ्यता है  जहाँ डूबते को भी प्रणाम है  पहला अर्घ्य उसी के नाम है  उगते सूर्य को उषा अर्घ्य है  छठ ही तो छठी का स्वर्ग है    माथे से सुहागिन की नाक तक  सिंधूर की आभा है एकटक  होठों पे सबके हँसी बसी  ठेकुआ के दीवाने

गमछा

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एके सादा कोई कपड़ा  ना समझा ए गुरू हम लोगन की शान ई गमछा है गुरू माथे पे बांधी जब तो ताज बनी गले में लिपटा के  जो निकले तो आवाज बनी सर पर रक्खा, जो मैंने गमछा तो पहाड़ तोड़ लिए कमर पर बांधा, जो मैंने गमछा तो राहे मोड़ लिए कभी मफलर, कभी मास्क कभी रूमाल बनी जेठ की लू जो चली ये सर की ढाल बनी कमर में लिपटा ली  तो इज्जत आदर ये बनी गर थक कर कहीं लेटे तो बिछोना चादर ये बनी : शशिप्रकाश सैनी 

यह शहर बनारस है

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एक शहर है जहाँ इत्मीनान और ठहर है वो इतिहास से पुराना है अपनी शर्तों पर अड़ा है एक साथ भूत , भविष्य   और वर्तमान में खड़ा है क्योंकि बाबा विश्वनाथ की   छत्रछाया में पड़ा है कभी गलियों में   कभी घाटों में पला है   उसके पास चाट है   मिठास है और ठंडई है   जहाँ सब गुरु हैं   कोई चेला नहीं   वो अपना लेता है सबको   यहाँ कोई अकेला नहीं यहाँ गंगा की लहरें हैं   अस्सी पे अठखेलियाँ हैं   मणिकर्णिका पे मोक्ष है   लंका पे महामना हैं   जिन्होंने बोया   विद्या का कल्पवृक्ष है   इसकी हर बात में रस है   यह शहर बनारस है   - शशिप्रकाश सैनी   #Sainiऊवाच #Hindi #Poetry

एक रात बगल में पौआ था

एक सांस में रख डाली बिन चखने के चख डाली न कोयल थी ना कौआ था एक रात बगल में पौआ था सब नींद ख्वाब पे ताला जड़ मंज़िल वंज़िल के पार निकल इक करवट पर अड़े रहे हम बेसुध ही तो पड़े रहे न कोयल थी ना कौआ था एक रात बगल में पौआ था डिब्बी में एक ही सुट्टा था वो सच था बाकी झूठा था हम जला बुझा के पीते थे सच में झूठ भी जीते थे न कोयल थी ना कौआ था एक रात बगल में पौआ था : शशिप्रकाश सैनी #Sainiऊवाच #Hindi #poetry

मैं बैकबेंचर रहा हूँ

मैं बैकबेंचर रहा हूँ और हमेशा रहूँगा ! कितनी ही बार खदेड़ा गया हूँ पहली बेंच पे पर लौट आता हूँ  दूर क्लास के कोलाहल से शांति की तलाश में बुद्ध हूँ जैसे एक अश्वमेध चल रहा है मुझमें सोच के घोड़े चारों दिशाओं में दौड़ा रहा हूँ पीछे बैठा हूँ, पर पीछे नहीं हूँ अपनी एक अलग ही दुनिया बना रहा हूँ पीछे बैठा हूँ, पर पीछे नहीं हूँ कभी शोर का संगीत सुन लेता हूँ कभी अपने मन की चुप्पी सारे कोलाहल पे बुन देता हूँ जब तीसरी आँख खोलता हूँ तांडव कागजों पर ऊकेर देता हूँ पीछे बैठा हूँ, पर पीछे नहीं हूँ आज भी ज़िंदगी में  थोड़ा सा पीछे बैठता हूँ दुनिया के दाँव पेंच से परे अपनी ही मौज में चहकता हूँ हाँ, मैं बैकबेंचर रहा हूँ ! : शशिप्रकाश सैनी

दातुन

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Photo credit:  www.marcelaangeles.com मुँह में दातुन, कंधे पर गमछा और हाथ में बेत लिए एक उम्र दराज शख्स पोखरे की ओर से चला आ रहा है, रास्ते में रुक रुक कर वो कभी बुआई करते लोगों को बेत के इशारे से कुछ समझाता है, तो कभी घास करती औरतों से गलचौर करता है | इन महाशय को पूरा गाँव "दातुन" के नाम से जानता है | कभी इन्हें "मुनासीब राम" के नाम से भी जाना जाता था , पर अब कुछ ही पुरनिया लोग बचे होंगे जो इनका असली नाम जानते है | मुनासीब राम की बाजार में कभी एक दुकान हुआ करती थी,  चाय पकौड़ों और मकुनी की,  हाथ में स्वाद था मुनासीब के, पर था बड़ा आलसी,  वो तो भला हो उसकी बीवी का कम से कम बीवी के डर के मारे दुकान पर बैठा तो रहता था,  वरना तो बड़े लड़के के अफसर बनते ही दुकान कब की बंद कर देता | आज से करीब पंद्रह बरस पहले मुनासीब की मेहरारू गुजर गई और साथ साथ दुकान लगाने की पाबंदी भी खत्म हो गई,  तब तक तो छोटा लड़का भी बम्बई में पैर जमा चुका था | भगवान की मुनासीब पर हमेशा से ही दया दृष्टि बनी रही आज भी महीना शुरू होते ही दो दो मनी आडर आ पहुँचते हैं उसके के दरवाजे पर |